शनिवार, 26 जनवरी 2013

महावीर बिनवउँ हनुमाना:

महावीर बिनवउँ हनुमाना: राम जासु जस आप बखाना
          जय जय जय हनुमान गुसाईं , कृपा करउ गुरुदेव की नाईं  । 
पवन तनय संकट हरण , मंगल मूरति रूप  !
राम लखन सीता सहित , हृदय बसहु सुर भूप !!

शनिवार, 31 दिसंबर 2011

नूतन वर्ष मंगलमय हो !

बीती ताही बिसार दे , आगे की सुध ले । 2012 आ गया ! मैं सबको नववर्ष की शुभकामना देता हुँ। आप सभी को यह नया साल अति मंगलकारी , सुखप्रद और आपकी सभी मनोकामनाओं का पूर्ण करनेवाला हो ! जय श्रीराम !

सोमवार, 4 अगस्त 2008

श्री हनुमत साठिका

" अथ श्री हनुमत साठिका "
     " चौपाईयाँ "
जय जय जय हनुमान अडंगी, महावीर विक्रम बजरंगी ।
जय कपीश जय पवन कुमारा, जय जगवंदन शील आगारा ॥
जय आदित्य अमर अविकारी, अरि मर्दन जय जय गिरधारी ।
अंजनि उदर जन्म तुम लीन्हा, जय जयकार देवतन कीन्हा ॥
बाजै दुन्दुभि गगन गम्भीरा, सुर मन हर्ष असुर मन पीरा ।
कपि के डर गढ़ लंक सकानी, छुटि बंदि देवतन जानी ॥
ॠषि समुह निकट चलि आये, पवनतनय के पद सिर नाये ।
बार बार अस्तुति करि नाना, निर्मल नाम धरा हनुमाना ॥
सकल ॠषिन मिलि अस मत ठाना, दीन बताय लाल फल खाना ।
सुनत वचन कपि मन हरषाना, रवि रथ उदय लाल फल जाना ॥
रथ समेत कपि कीनि अहारा, सुर्य बिना भयौ अति अंधियारा ।
विनय तुम्हार करैं अकुलाना, तब कपीरा की अस्तुति ठाना ॥
सकल लोक वृतांत  सुनावा, चतुरानन तब रवि उगलावा ।
कहा बहोरि सुनो बलशीला, रामचन्द्र करि हैं बहु लीला ॥
तब तुम उन कर करव सहाई, अबहीं बराहु कानन में जाई
अस कहि विधि निज लोक सिधारा, मिले सखा संग पवनकुमारा ॥
खेलें खेल महा तरु तोरें, ढेर करें बहु पर्वत फोरें ।
जेहि गिरि चरण देहि कपि धाई, गिरि समेत पातालहिं जाई ॥
कपि सुग्रीव बालि को त्रासा, निरख रहे राम धनु आसा ।
मिले राम तहाँ पवन कुमारा, अति आनन्द सप्रेम दुलारा ॥
मणि मुँदरी रघुपति सो पाई, सीता खोज चले सिर नाई ।
शत योजन जलनिधि विस्तारा, अगम अपार देवतन हारा ॥
जिमि सर गोखुर सरिस कपीशा,  लांघि गये कपि कहि जगदीशा ।
सीता चरण सीस तिन नाये, अजर अमर के आशिष पाये ॥
रहे दनुज उपवन रखवारी, एक से एक महाभट भारी ।
जिन्हें मारि पुनि गयेउ कपीशा, दहेउ लंक कोप्यो भुजबीसा ॥
सिया बोध दैं पुनि फिर आये, रामचन्द्र के पद सिर नाये ।
मेरु उपारि आपु छिन माहीं, बाँधे सेतु निमिष इक माहीं ॥
लक्ष्मण शक्ति लागी जबहीं,  राम बुलाय कहा पुनि तबहीं ।
भवन समेत सुखेण लै आये, तुरत सजीवन को पुनि धाये ॥
मग महं कालनेमि कहं मारा, अमित सुभट निशिचर संहारा ।
आनि सजीवन गिरि समेता, धरि दीन्हीं जहं कृपानिकेता ॥
फनपति केर शोक हरि लीन्हा, वरषि सुमन सुर जय जय कीन्हा ।
अहिरावण हरि अनुज समेता, ले गयो तहां पाताल निकेता ॥
जहां रहे देवि अस्थाना , दीन चहै बलि काढ़ि कृपाणा ।
पवनतनय प्रभु कीन गुहारी, कटक समेत निशाचर मारी ॥
रीछ कीशपति सबै बहोरी, राम लखन कीने इक ठोरी ।
सब देवतन की बंदि छुड़ाये ,सो कीरति मुनि नारद गाये ॥
अक्षयकुमार दनुज बलवाना, सानकेतु कहं सब जगजाना ।
कुम्भकरण रावण कर भाई, ताहि निपात कीन्ह कपिराई ॥
मेघनाद पर शक्ति मारा, पवनतनय तब सों बरियारा ।
रहा तनय नारान्तक जाना, पल महं ताहि हते हनुमाना ॥
जहं लगि मान दनुज कर पावा , पवनतनय सब मारि नसावा ।
जय मारुतसुत जय अनुकुला, नाम कृशानु शोक सम तुला॥
जहं जीवन पर संकट होई, रवि तम सम सों संकट खोई ।
बन्दि परै सुमिरे हनुमाना, संकट कटै धरै जो ध्याना ॥
जाको बांध वाम पद दीन्हा, मारुतसुत व्याकुल बहु कीन्हा ।
जो भुजबल का कीन कृपाला, आछत तुम्हें मोर यह हाला ॥
आरत हरन नाम हनुमाना, सादर सुरपति कीन बखाना ।
संकट रहै न एक रती को, ध्यान धरै हनुमान जती को ॥
धावहु देखि दीनता मोरि, कहौं पवनसुत युगकर जोरि ।
कपिपति बेगि अनुग्रह करहु, आतुर आई दुसह दुख हरहु ॥
रामशपथ मैं तुमहिं सुनाया, जवन गुहार लाग सिय जाया ।
पैज तुम्हार सकल जग जाना , भव बंधन भंजन हनुमाना ॥
यह बंधन कर केतिक बाता, नाम तुम्हार जगत सुख दाता ।
करौ कृपा जय जय जगस्वामी, बार अनेक नमामि नमामि ॥
भौमवार कर होम विधाना, सुन नर मुनि वाछिंत फल पावै ।
जयति जयति जय जय जग स्वामी, समरथ पुरुष सुअंतरयामी ॥
अंजनि तनय नाम हनुमाना, सो तुलसी के प्राण समाना ॥
          
  [ दोहे ]
जय कपीश सुग्रीव तुम, जय अंगद हनुमान ।
रामलखन सीता सहित, सदा करौ कल्यान ॥
बन्दौ हनुमत नाम यह, मंगलवार प्रमाण ।
ध्यान धरै नर निश्चय,  पावै पद कल्याण ॥
जो नित पढै यह साठिका, तुलसी कहै विचारि ।
रहै न संकट ताहि को , साक्षी हैं त्रिपुरारि ॥
         जय श्रीराम 

रविवार, 3 अगस्त 2008

॥ शिव तांडव स्तोत्रम् ॥

॥ शिव तांडव स्तोत्रम् ॥
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले , गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम् ।
डमड्डमड्ड्मड्ड्मन्निनादवड्ड्मर्वयं , चकार चण्डताण्डवं तनोतु न: शिव:शिवम् ॥ 1 ॥
जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी-विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्ध्दनि ।
धगध्दगध्दगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके , किशोरचन्द्रशेखरे रति: प्रतिक्षणं मम ॥ 2 ॥
धराधरेन्द्ननन्दिनीविलासबन्धुबन्धुर-स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे ।
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुध्ददुर्धरापदि , क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥ 3 ॥
जटाभुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा-कदम्बकुंकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे ।
दान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे , मनोविनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥ 4 ॥
सहस्त्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर-प्रसूनधुलिधोरणीविधुसराङध्रिपीठभू: ।
भुजंगराजमा्लया निबध्दजाटजूटक: , श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखर: ॥ 5 ॥
ललाटचत्वरज्वलध्दनञ्ज्यस्फुलिंगभा-निपीतपंचसायकं नमन्निलिम्पनायकम् ।
सुधामयुखलेखया विराजमान शेखरं , महाकपालि सम्पदे शिरो जटालमस्तु न: ॥ 6 ॥
करालभाल्पट्टिकाधगध्दगध्दगज्ज्वलध्दनञ्ज्याहुतीकृतप्रचण्डपंचसायके ।
धराधरेन्द्ननन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रकप्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ॥ 7 ॥
नवीनमेघमण्डलीनिरुध्ददुर्धरस्फुरत्कुहुनिशीथिनीतम: प्रबन्धबध्दकन्धर: ।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुर: , कलानिधानबन्धुर: श्रियं जगदधुरन्धर: ॥ 8 ॥
प्रफुल्लनीलपंकजप्रपंचकालिमप्रभावलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबध्दकन्धरम् ।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं , गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे ॥ 9 ॥
अखर्वसर्वमंगलाकलाकदम्बमञ्जरी , रसप्रवाहमाधुरीविजृम्भणामधुव्रतम् ।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं , गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥ 10 ॥
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमभ्दुजंगमश्र्व्स , द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् ।
धिमिध्दिमिध्दिमिद्ध्वनन्मृदंगतुन्गमंगलध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचण्ड्ताण्डव: शिव: ॥ 11 ॥
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंगमौक्तिकस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठ्यो: सुहृद्विपक्षपक्षयो: ।
तृणारविन्दचक्षुषो: प्रजामहीमहेन्द्रयो: , समप्रवृत्तिक: कदा सदाशिवं भजाम्यहम् ॥ 12 ॥
कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुंजकोटरे वसन् , विमुक्तदुर्मति: सदा शिर:स्थमञ्जलिं वहन् ।
विलोललोचनो ललामभाललग्नक: , शिवेति मन्त्रामुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥ 13 ॥
इमं हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं , पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुध्दिमेति सन्त्ततम् ।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं , विमोहनं हि देहिनां सुशंकरस्य चिन्तनम् ॥ 14 ॥
पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं , य: शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरंगयुक्तां , लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भु: ॥ 15 ॥
॥ इति श्रीरावणकृतं शिवताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

शनिवार, 2 अगस्त 2008

अथ शिवमहिम्न: स्तोत्रम्

" श्री हरि "
॥ अथ ध्यानम् ॥
वन्दे देव उमापतिं सुरगुरुं, वन्दे जगत्कारणम् ।
वन्दे पन्नगभुषणं मृगधरं, वन्दे पशुनां पतिम् ॥
वन्दे सूर्य शशांक वह्नि नयनं, वन्दे मुकुन्दप्रियम् ।
वन्दे भक्त जनाश्रयं च वरदं, वन्दे शिवंशंकरम् ॥

॥ अथ शिवमहिम्न: स्तोत्रम् ॥
महिम्न: पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी , स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नस्त्वयि गिर: ।
अथावाच्य: सर्व:स्वमतिपरिणामवधि गृणन्ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवाद: परिकर : ॥ 1 ॥
अतीत:पन्थानं तव च महिमा वाङमनसयोरताद्व्यावृत्त्या, यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि ।
स कस्य स्तोतव्य: कतिविधगुण: कस्य विषय : , पदे त्वर्वाचीने पतति न मन: कस्य न वच: ॥ 2 ॥
मधुस्फ़ीता वाच: परममृतं निर्मितवत स्तव , ब्रह्मन् किं वागपि सुर्गुरोर्विस्मयपदम् ।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवत:, पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुध्दिर्व्यवसिता ॥ 3 ॥
तवैश्वर्यं यत्त्ज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत् , त्रयीवस्तु व्यस्तं तिसृषु गुणाभिन्नासु तनुषु ।
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं , विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधिय: ॥ 4 ॥
किमीह: किंकाय: स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं , किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च ।
अतर्क्यैश्चर्ये तवय्यनवसरदु:स्थो हतधिय: , कुतर्कोऽयं कांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगत: ॥ 5 ॥
अजन्मानो लोका: किमवयववन्तोSपि जगतामधिष्ठातारं , किं भवविधिरनादृत्य भवति ।
अनीशो वा कुर्याद भुवनजनने क: परिकरो , य्तो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ॥ 6 ॥
त्रयी सांख्यं योग: पशुपतिमतं वैष्णवमिति , प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमद: पथ्यमिति च ।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां , नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥ 7 ॥
महोक्ष: खट्वाङ्गं परशुजिनं भस्म फणिन: , कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् ।
सुरास्तां तामृध्दिं दधति तु भवद्भ्रुप्रणिहितां , न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति ॥ 8 ॥
ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं , परौ ध्रौव्याध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये ।
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव , स्तुवञ्जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता ॥ 9 ॥
तवैश्वर्यं यत्नाद्यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरथ: , परिच्छेत्तुं यातावनलमनलस्कन्धवपुष: ।
ततो भक्तिश्रद्धाभरगुरुगृणद्भ्यां गिरिश यत् , स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति ॥ 10 ॥
अयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं , दशास्यो यदबाहूनभृत रणकण्डूपरवशान् ।
शिर: पद्मश्रेणीरचितचरणाम्भोरुहबले: , स्थिरायास्त्वदभ्क्तेरत्रिपुरहर विस्फुर्जितमिदम् ॥ 11 ॥
अमुष्य त्वत्सेवासमधिगतसारं भुजवनं , बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयत: ।
अलभ्या पातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि , प्रतिष्ठा त्वय्यासीद ध्रुवमुपचितो मुह्यति खल: ॥ 12 ॥
यदृध्दिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीमधश्चक्रे बाण: परिजनविधेयत्रिभुवन: ।
न तच्चित्रं तस्मिन्वरिवसितरि त्वच्चरणयोर्न , कस्या उन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनति: ॥ 13 ॥
अकाण्डब्रह्माण्डक्षयचकितदेवासुरकृपाविधेयस्याऽऽसीद्यस्त्रिनयन विषं संहृतवत: ।
स कल्माष: कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो , विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवनभयभंगव्यसनिन: ॥ 14 ॥
असिध्दार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे , निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखा: ।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत् , स्मर: स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्य: परिभव: ॥ 15 ॥
मही पादाघाताद् व्र्जति सहसा संशयपदं , पदं विष्णोर्भ्राम्यदभुजपरिघरुग्णग्रहगणम् ।
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृतजटाताडिततटा , जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ॥ 16 ॥
वियद्व्यापी तारागणगुणितफ़ेनोद्गमरुचि: , प्रवाहो वारां य: पृषतलघुदृष्ट: शिरसि ते ।
जगदद्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृत्तामित्यनेनैवोन्नेयं , धृतमहिम दिव्यं तव वपु: ॥ 17 ॥
रथ: क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो , रथांगे चन्द्रार्कौ रथचरणपाणि: शर इति ।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बरविधिविर्धेयै: , क्रीडन्त्यो न खलु परतंत्रा: प्रभुधिय: ॥ 18 ॥
हरिस्ते साहसं कमलबलिमाधाय पदयोर्यदेकोने , तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम् ।
गतो भक्तत्युद्रेक: परिणतिमसौ चक्रवपुषा , त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागार्ति जगताम् ॥19 ॥
क्रतौ सुप्ते जाग्रत्वमसि फलयोगे क्रतुमतां , क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते ।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदानप्रतिभुवं , श्रुतौ श्रध्दां बद्ध्वा कृतपरिकर: कर्मसु जन: ॥ 20 ॥
क्रियादक्षो दक्ष: क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतामृषीणामार्त्विज्यं , शरणद सदस्या: सुरगणा: ।
क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफलविधानव्यसनिनो , ध्रुवं कर्तु: श्रध्दाविधुरमभिचाराय हि मखा: ॥ 21 ॥
प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं , गतं रोहिदभूतां रिरमयिषुमृष्यस्य ।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं , त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभस: ॥ 22 ॥
स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमहनाय तृणवत् , पुर: प्लुष्टं दृष्टवा पुरमथन पुष्पायुधमपि ।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत देहार्धघटनादवैति , त्वामध्दा वत वरद मुग्धा युवतय: ॥ 23 ॥
श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचा: सहचराश्चिताभस्मालेप: स्त्रगपि नृकरोटीपरिकर: ।
अमंगल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं , तथापि स्मर्तणां वरद परमं मंगलमसि ॥ 24 ॥
मन: प्रत्यक्विचत्ते सविधमवधायात्तमरुत: , प्रहृष्यद्रोमांण: प्रमदसलिलोत्संगितदृश: ।
यदालोक्याह्लादं हृद इव निमज्यामृतमये , दध्त्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत्किल भवान ॥25 ॥
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवह , स्त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च ।
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रतु गिरं , न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत्त्वं न भवसि ॥ 26 ॥
त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरानकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत्तीर्णविकृति ।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभि: , समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् ।। 27 ॥
भव: शर्वो: रुद्र: पशुपतिरथोग्र: सहमहांस्तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् ।
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि , प्रियायास्मै धाम्ने प्रविहितनमस्योऽस्मि भवते ॥ 28 ॥
नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमो , नम:क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नम: ।
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमो , नम: सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नम: ॥ 29 ॥
बहुलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नम: , प्रबलतमसे तत्संहारे हराय नम: ।
जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमोनम: , प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नम: ॥ 30 ॥
कृशपरिणति चेत: क्लेशवश्यं क्व चेदं , क्व च तव गुणसीमोल्लंघिनि शश्वदृद्धि: ।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्-वरद चरणयोस्ते वाक्यपुष्पोपहारम् ॥ 31 ॥
असितगिरिसमं स्यात्कज्जलं सिन्धुपात्रे , सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी ।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं , तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ॥ 32 ॥
असुरसुरमुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दुमौलेग्रंथितगुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य ।
सकलगणवरिष्ठ: पुष्पदन्ताभिधानो रुचिरमलघुवृत्तै: स्तोत्रमेतच्चकार ॥ 33 ॥
अहरहरनवद्यं धूर्जटे: स्तोत्रमेतत् , पठति परमभक्त्या शुद्धचित्त: पुमान्य: ।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र: , प्रचुरतरधनायु: पुत्रवान् कीर्तिमांश्च ॥ 34 ॥
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुति: , अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति त्तत्वं गुरो: परम् ।। 35 ॥
दीक्षा दानं तपस्तीर्थं योगयागादिका: क्रिया : , महिम्न: स्तवपाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ 36 ॥
कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराज: , शिशुशशिधरमौलेर्देवस्य दास : ।
स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात् , स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्यदिव्यं महिम्न: ॥ 37 ॥
सुरवरमुनिपूज्यं स्वर्गमौक्षेकहेतुं , पठति यदि मनुष्य: प्ररांजलिर्नान्यचेता: ।
व्रजति शिवसमीपं किन्नरै: स्तूयमान: , स्तवनमिदममोघमं पुष्पदन्तप्रणीतम् ॥ 38 ॥
श्रीपुष्पदन्तमुखपंकजनिर्गतेन , स्तोत्रेण किल्विषहरेण हरप्रियेण ।
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन , सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेश: ॥ 39 ॥
इत्येषा वांगमयी पूजा श्रीमच्छंकरपादयो:, अर्पिता तेन देवेश: प्रीयतां मे सदाशिव: ॥ 40 ॥
॥ इति श्रीपुष्पदंतविरचितशिवमहिम्न:स्तोत्र: ॥

गुरुवार, 24 जुलाई 2008

श्री हनुमान लहरी

जय श्रीराम
" अथ श्री हनुमान लहरी "
दोहा
गुरु पद पंकज धारि उर , सुर नर शीश नवाय ।
मारूत सुत बलवीर कहं , ध्यावत चित मन लाय ॥
प्रथम वन्दि सियराम पद , अवध नारि नर संग ।
वन्दौ चरण सुध्यान धरि , हनुमत कंचन रंग ॥
मन चित देइ सुनौ विनै , हौं तुम दीन दयाल ।
और नहिं कछु वासना , दासहिं करहु निहाल ॥
तात बड़ाई रावरी , बिछुवत जोति अनन्द ।
सब विधि हीन मलीन मति , अहै दीन ब्रजनन्द ॥
जानै जग दातव्यता , नाथ मोर सरवस्य ।
पै बिरलै कोउ जानि हैं , यह अति गूढ़ रहस्य ॥
जय जय दारुण दुःखदलन , महावीर रणधीर ।
कर गहि लेउ उबार प्रभु , आय जुरी अति भीर ॥
गदगद गिरा गुमान तज , जुगल पाणि करि जोर ।
हनुमत अस्तुति करत हुँ ,सिगरी भांति निहोर ॥
" छप्पय छन्द "
जै पवनसुत दयानिधान दारिद दु:ख भंजन ।
जैति अंजनि तनय सदा सन्तन मन रंजन ॥
जैति वीर सिरताज लाज राखऊ मम आजू ।
जै जै रघुवर दास जासु साजेब शुभ काजू ॥
प्रभु जस करि बन्धु सु कहं कियो पार दु:ख सिन्धु सों ।
हनुमंत मेरो दु:ख दूर करो होउ सहाय सु बन्धु सों ॥
जैति जैति दुखहरन सरन अब मोको दीजै ।
जैति जैति हनुमंत अंत न थारो पईजै ।
जै अंजनिसुत वीर धीर अति धरम धुरन्धर ।
जय जय रघुकुल कुमुद चेट जय भच्छक रविकर ।
जय मारुतसुत तेजवान दुख-द्वंद दलैया ।
जय सीता सुख मूल तूल सम लंक जलैया ।
रघुवर कर सब काज लाल तुम आप संवारो ।
रुचिर वाटिका दशकन्धर कर नाथ उजारो ।
वानर दल कहं विजय तात तुम आप दिवायो ।
लंका कहं सन्धान करी सीता सुधि पायो ।
सुग्रीवहिं पहं राम आनि शुभं सखा बनायो ।
लाय विभीषण नाथ निकट तुम अभय करायो ।
सागर उतरेउ पार मेल मुद्रिका मुख माहीं ।
सुन शुभमय संवाद अचरज कोऊ नाहीं ।
लाय सजीवनि मुरि लखन कहं जीवित कीनो ।
शोक जलधि सो आप काढ़ि रघुवर कहं लीनो ।
रघुपति सादर सखा भाषि उर लावत भयऊ।
सकल शोक तत्काल ह्रदय सों बाहर गयऊ ।
श्रीमुख तेरे विशद गुणन को भाष्यो स्वामी ।
भरत बाहू बल होय तोहि कह अन्तरयामी ।
भाखि सुखद संवाद तात भय भरत नसायो ।
हरषि सुजस तत्काल अवध नारी-नर गायो ।
रघुपति कर कछु काज तात तुम बिन नहिं सरितो ।
सुरपुर मो जय जयति शब्द तुम बिन को भरितो ।
दोहा :- देइ बड़ाई वानरन ,असुरन को वध कीन ।
तो सम को प्रिय सीय को ,जासु शोक हर लीन ॥
जय जय शंकर सुवन जयति जय केसरीनन्दन ।
जय जय पवनकुमार जयति रघुवर पद वन्दन ॥
जय जय जनककुमारी प्यारी यह रघुपति पायक ।
जयति जयति जय जयति तात सुर साधु सहायक ॥
सकल द्वार सों हार हाय तुव द्वारहिं आयऊँ ।
दानशीलता देखि रावरी हिय सुख पायऊँ ॥
या दर सो महरूम तात अब कहां सिधारुं।
विपत काल में अहो नाथ अब काहि पुकारुं ॥
कर गहि लेउ उबार नाथ हूँ दास तिहारो ।
कर गहि लेउ उबार नाथ निज ओर निहारी ।
कर गहि लेउ उबार नाथ सिगरी विधि हारी ॥
गहि कर अजऊं अबारु नाथ भव सिन्धु अथाहै ।
गहि कर अजऊं अबारु नाथ ब्रज डूबन चाहै ॥
द्रवहु द्रवहु यहि काल नाथ मोको कोऊ नाहीं ।
द्रवहु द्रवहु यहि काल हार आयऊं तुव पाहीं ॥
द्रवहु द्रवहु हनुमत कपि दल के सिरताजू ।
द्रवहु द्रवहु कपिराज ताज तुम सन्त समाजू ॥
विनवत हौं कर जोर अजौं टारहु मम संकट ।
विनवत हौं कर जोर नाथ काटहु मम कंटक ॥
विनवत हो हे नाथ दया कर रन ते हेरहु ।
विनवत हो हे नाथ यह दारुण दुख टेरहु ॥
पद गहि विनवौं नाथ तोहिं कहं कस नहिं भावै ।
पद गहि विनवौं हाय नाथ तुव दया नहिं आवै ।
पद गहि विनवौं हाय अजहु मो अभय कीजै ।
पद गहि विनवौं हाय अजहु मो सुख सम्पत्ति दीजै ॥
सुखसागर आनन्द धन सन्तन के सिरमौर ।
दुख वन पावक नाथ तुम , सिर पर सोहत खौर ॥
रोला छन्द
आज जुरयो यहि काल मोहि पै दारुण सोको ।
सूझत ना तिहुं लोक मोहि तोसो कोउ मोको ।
स्वारथ हित सब जगत मांझ राखत है प्रीती ।
पै रौरी हे नाथ अहै अति अनूठी रीती ।
हाय हाय है नाथ हाय अब मों न बिसारहु ।
हाय हाय है नाथ हाय अब कोप निवारहु ।
धन बल विद्या हाय कछु नहीं मो ढिग सांई ।
कवन सम्पदा कवन तात कब तो बिन पाई ।
दीन हीन सब भांति हुजिये वेग सहायक ।
फेरिये कृपा कटाक्ष आप सब विधि सब लायक ।
सुखद कथा तुव हाय नाथ कस दीन सुभाखै ।
सदा सुचरन पाहिं चित्त आपन कस राखै ।
काम क्रोध मद लोभ मोह मोहिं सदा सतावैं ।
चित्त वित्त सो हीन दीन कस तो कहं पावैं ।
अजहुं होय सहाय मोर सब काज संवारहु ।
गयऊ सकल विधि हारि हाय अब मोहि संभारहु ।
सदा कहत सब लोग आप कहं संकटमोचन ।
सदा कहत सब लोग आप दारुण दुखमोचन ।
अपनहिं ओर निहारि नाथ मो कहं जनि हेरहु ।
आय जुरेउ दुख विकट ताहि कहं तुरतहिं टेरहु ।
और कहौ कत नाथ तोहिं कह बहुत बुझाई ।
और कहौ कत हाय मोहि सों कहि नहि जाई ।
सदन गुनन के खान दीन हित जन सुखदायक ।
पवनपुत्र दुख देख अजहुं प्रभु होहु सहायक ।
सोरठा :- अजहुं होय सहाय , तात निवारो दुख सब ।
कहा कहो समुझाय ,अजहुं न बिगरेऊ काज कछु ।
हरिगीतिका छन्द
बहु भांति विनय बहोरि हे प्रभु जोरि कर भाखत अहौं ।
तुव चरन रत मम मन रहे कछु और वर जासो लहौं
रघुवरी पायन पदुम पावन भृंग मोहि बनाईये ।
भव सिन्धु अगम अगाध सो प्रभु पार अजहु लगाईये ।
तुम तजि कहों कासों विपति अब नाथ को मेरी सुनै ।
रावरि भरोस सुवास तजि प्रभु और को कछु न गुनै ।
वैरि समाज विनाश कर हनुमान मोहि विजयी करौ ।
मेरी ढिठाई दोष अवगुन पै न चित्त सांई धरौ ।
जब लगि सकल न गुनान तजि नर आइ राउर पद गहै ।
तब लगि दावानल पाप को बहुत भांति तन मन ही दहै ।
जब लगि न रावरि होय नर सब भांति मन कर्म वचन ते ।
तब लगि न रघुवर दास होत करोर जोखिम यतन ते ।
यहि मान जिय परमान निश्चय सरन राउर हम गहै ।
परलोक लोक भरोस तजि नित नाथ का दरशन चहै ।
हम अपनि ओर निहोर बहु विधि नाथ नित विनती करो ।
हरषाय सादर नाथ तुम गुन गात निज हियरो धरो ।
जनि करहुं मोहि अनाथ नाथ सुदास हूँ मैं रावरो ।
हनुमान हैं शुचि पतित पावन दास जो पै रावरो ।
अबहुं करो सनाथ नाथ न तो जगत मोहि तोहि का कहै ।
यह रुचिर पावन स्वामि सेवक नेह नातो क्यौं रहै ।
दोहा :- विजय चहैं निज काज महं, हनुमत कहं सुनाय ।
लखि मेरी अज दुरदसा, द्रवहु अजहुं तुम धाय ।
सोरठा
हार देत सब काज , नाथ रावरे हाथ महं ।
सजहु सकल शुभ साज , भजहु जानि अब मोहि तजि ।
पंगु भई मो बुध्द , अकथ कथा कस कहि सकौं ।
करहु काज मम सिद्ध , और कहा तोसौं कहौं ।
सुनै न समुझे रीत , मगन भयो मन प्रेम महं ।
अब न सिखावहु नीत , यासो मोहि न काज कछु ।
नहि दर छाड़ब हाय , मारहु या जीवित राखहु ।
ब्रजनन्दन बिलखाय , भाखत साखी दैं सियहिं ।
पाहि पाहि भगवन्त , अब सुधि लीजै दास की ।
दीजै दरस तुरन्त , करिये कृतारथ दीन जन ।
मांगत दोउ कर जोरि , अभै दान तुम सन सदा ।
बारहि बार निहोरि , कहत करहु फुर मो वचन ।
जो याको चित्त लाय करे , पाठ शुचि प्रेम सों।
ताकर सकल बलाय , हरहु दरहु दारुण विपति ।
दोहा :-" हनुमान लहरी " पढ़त , हिय धरि पवनकुमार ।
सुजन दया करि दास पै , छमिहैं चूक अपार ।

जय श्रीराम

मंगलवार, 8 जुलाई 2008

श्री मानस रस मंजरी (७)

गताँक से आगे----
राजा विलाप करते है , दीन हीन की तरह -
" " दोहा - राम राम कहि,राम कहि , राम राम कहि राम ।
तनु परिहर रघुवर विरह , राऊ गये सुरधाम ॥ "
श्रीगोस्वामीजी ने इस दोहे को तेरह "र" किसलिये दिये है , यह तो मानसकार संत ही समझ सकते हैं । अपन तो अपनी संतोष के लिये लिख रहे हैं । श्रीतुलसीदास महाराजजी ने दशरथजी के मुख से दो चौपाई,एक दोहा में
बारह "ह" बुलवाये -
" हा रघुनंदन प्राणपिरीते, तुम्हबिन जियत बहुत दिन बीते ।
हा जानकी लखन हा रघुवर ,हा पितु हित चातक जलधर ॥
दोहा - राम राम कहि,राम कहि , राम राम कहि राम ।
तनु परिहर रघुवर विरह , राऊ गये सुरधाम ॥ "
दोहा की दुसरी लकीर में सात "र" गोस्वामीजी ने स्वंय अपनी तरफ़ से लिखे हैं । शायद उन्होंने सोचा होगा कि सातों द्वीप में दशरथजी जैसा भाग्यशाली पुरुष नहीं हुआ , जो बारह "र" बोलते हुये शरीर त्यागे । "र" कोई साधारण अक्षर नहीं है -
"रकार ईश्वर मकार जीव , आकार माया जान ।
तीनों मिल ताली बजी , संसय बिहंग उड़ान ॥"
मारीच कहता है - "र" का प्रभाव बताता है -
"रा असनाम सुनत दसकंधर , रहत प्राण नहि मम उर अंतर ।"
रामनाम का प्रभाव भगवान शंकर जी जानते है -
" नाम प्रभाव जान शिव नीके ,कालकूट फल दीन्ह अमीके ॥"
जिस समय समुद्र-मंथन से हलाहल विष निकला , उस जगह का तेज देवताओं को, सात स्वर्ग को नष्ट किये दे रहा था ।
"जरत सकल सुर वृन्द , विषम गरल जेहि पान किय ।"
तब भोले भगवान ने अपने इष्ट का ध्यान कर पहले "रा" बोलकर उस हलाहल जहर को पी लिया और ऊपर से "म" शब्द का ढक्कन लगा दिया । अर्थात "रा"और "म" के बीच में जहर को रखने या पीने से विष का असर नहीं हुआ । शंकरजी ने उस हलाहल को अपने कंठ में रखा । जिससे उनका कंठ नीला हो गया और वे नीलकंठ कहलाये । जहर के खाने से प्राणी मर जाता है । परन्तु इस नाम के प्रभाव से -
" कालकूट फल दीन्ह अमीके "
ऐसे नाम को दशरथजी छह बार "राम" और छह बार केवल "र" बोलते हुये -" राऊ गये सुरधाम "
यह संवाद जब वशिष्ठजी ने सुना और अन्य मुनिजनों ने सुना तो आश्चर्यचकित हो सोचने लगे -
" जन्म जन्म मुनि जतनु करा्हीं , अंत राम कहि आवत नाहीं ।"
मुनि समुह में एक चर्चा का विषय बन गया । अरे ! राजा दशरथ ने प्राण त्यागते समय एक बार नहीं छह बार "राम" और छह बार केवल "र" कहा । धन्य है ! वह राजा अज जिनके ऐसे पुण्यशाली बड़भागी पुत्र हुए ।
इसीलिये शायद श्री गोस्वामीजी ने रावण, कुंभकर्ण के पिता का नाम अपनी रामचरित मानस में नहीं लिखा । जिससे ऐसे नालायक पुत्र हो जो घड़ों से , मटकों से शराब पी जाये । मांस के लिये मरे हुये नहीं बल्कि जीवित भैंस, बोदा खा जाय । कुंभकर्ण के बारे में लिखा है कि , जब वह जागा तब रावण ने उसके लिये पीने-खाने का क्या प्रबन्ध किया । एक प्लेट खारा या आलूपोंडे, समोसा नहीं मँगाया , क्या मँगाया--
" रावण मांगेहु कोटि घट , मद अरु महिष अनेक ।"
" महिष खाइ करि मदिरा पाना , गर्जा वज्राघात समाना ।"
" रण मदमत्त फ़िरे जग धावा , प्रति भट खोजत कतहु न पावा ।
पुनि पुनि सिंहनाद करि भारी , देय देवतन्ह गारि प्रचारी ।"
दुष्ट कलह प्रिय होते हैं सज्जन ,संत शान्तिप्रिय होते हैं । जब रावण सब प्रकार का वैभव और बल पा चुका , तो शान्ति से सुख भोगना था या भजन करता ! पर नहीं --
" रण मदमत्त फ़िरे जग धावा , प्रति भट खोजत कतहु न पावा ।
पुनि पुनि सिंहनाद करि भारी , देय देवतन्ह गारि प्रचारी ।"
इसीलिये रावण के पिता ,रावण के बड़े भाई की कोई चर्चा नहीं बल्कि इनका नाम भी नहीं दिया ।
इनका प्रमाण मिलता है अदभुत रामायण में ( सप्तदस सर्ग श्लोक 40 )
" सुमाली राक्षसश्रेष्ठः कैकसी नाम तत सुता,
मुने विश्रवः पत्नि सासुत रावण द्वयम ॥"
सुमाली नाम का एक बड़ा भारी राक्षस था जिसकी कन्या का नाम कैकसी था । वह मुनि विश्रवा की पत्नि हुई , जिससे दो रावण नाम के पुत्र हुये ।
" एक सहस्त्र वदनौ , द्वितीयौ दशवक्रकः । जन्म कालै सुरैशान्तकमाकाशे रावण द्वयम ॥"
बड़ा भाई हजार मुखवाला और छोटा दस मुखवाला जो लंका में था । बड़ा भाई सहस्त्रमुख रावण पाताल में निवास करता था । जिसे बाद में श्री सीताजी ने इसका संहार किया था । ऐसी कथा अदभुत रामायण में आती है ।
ऐसे कुपुत्रों का नाम लेना भी पाप होता है । तो मुनि लोग श्रीदशरथजी के पिताजी की जयजयकार करने लगे और कहने लगे -
" " जन्म जन्म मुनि जतनु करा्हीं , अंत राम कहि आवत नाहीं ।"
मुनिजन कहते हैं कि , धन्य उन दशरथजी को जो केवल श्री राम का नाम ही नहीं , साथ में भक्तिस्वरुपा श्री सीताजी जो परब्रम्ह की माया , आदिशक्ति को भी स्मरण करते हैं ,और साथ ही वैराग्य का भी स्मरण करते हैं । हमको भी याद रखना है कि हम केवल भजनानंदी ही न बन जाये । भगवान को पाने के लिये भक्ति और वैराग्य की भी जरुरत है । तभी तो दशरथ जी भी विरागी लक्ष्मण की याद करते हैं -
"हा जानकी लखन हा रघुवर "
जानकी जी को याद कर रहे हैं । जानकीजी कौन हैं ? जिस समय श्री शंकरजी, ब्रह्मादि सब देवता सुमेरु पर्वत पर परब्रह्म परमात्मा से रावण का अत्याचार सुनाने को आतुर हो स्तुति करने लगे तब आकाशवाणी हुई और ब्रह्यवाणी ने कहा । हम अंशों सहित अवतार लेगें , साथ ही आदिशक्ति भी अवतार लेगी ।
" आदिशक्ति जेहि जग उपजाया , सो अवतरहि मोरि यह माया ।"
श्रीदशरथजी आदिशक्ति स्वरूपा सीताजी की याद करते करते प्राण त्याग दिये । सीताजी अयोध्या में रह जाती या सुमन्तजी के साथ गंगा किनारे से लौट आती तो भी श्रीदशरथजी के प्राण नहीं जाते । श्रीदशरथजी ने कहा था -
" जेहि विधि अवध आव फिरि सीया , सो रघुवरहि तुम्हहि करनीया ॥
श्री सुमन्तजी, श्री राम जी को बताते हैं कि,राजा श्रीदशरथजी ने कहा है- जैसे भी बने तुम चार दिन सीता को जंगल घुमा कर वापस ले आना , नहीं तो मैं जीवित न रह पाऊँगा ।
"नतरू निपट अवलंब विहीना , मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना ।"
तीनोंके वियोग में तीनों का नाम लेते-लेते - " राऊ गये सुरधाम " ।
सात "र" तुलसी बाबा ने अपनी तरफ़ से लगाये तो ,सोचा होगा कि , जब श्रीराम ने धनुष तोड़ा था तो स्वर्ग के सातों लोक के वासी-( भू,भुवः,स्वः,जन,तप,मह,और सत्यलोक )धनुष-भंग की आवाज से घबराकर अपने कानों में उंगली डालकर रह गये थे । इसी तरह नीचे के सातों लोक ( तल ,अतल,वितल,सुतल,तलातल,रसातल और पाताल ) श्रीगोस्वामी जी ने लिखा ---
" महि पाताल नाक यसु व्यापा , राम बरि सिय भंजेहु चापा ॥ "
" छंद - सुर असुर मुनि कर कान दीन्हे, सकल विकल विचारहिं "
पातालवासी असुर,ऊपर के लोकवासी देवता और मृत्युलोकवासी मुनि । ऐसे प्रभावशाली श्रीरामजी के पिताजी के स्वर्गवास की सूचना , बाबा तुलसी सात "र" लिखकर सात लोकों में पहुँचाते हैं । जो भी हो उसको भगवान ही जाने ।
शेष अगले अंक में-----