सोमवार, 4 अगस्त 2008

श्री हनुमत साठिका

" अथ श्री हनुमत साठिका "
     " चौपाईयाँ "
जय जय जय हनुमान अडंगी, महावीर विक्रम बजरंगी ।
जय कपीश जय पवन कुमारा, जय जगवंदन शील आगारा ॥
जय आदित्य अमर अविकारी, अरि मर्दन जय जय गिरधारी ।
अंजनि उदर जन्म तुम लीन्हा, जय जयकार देवतन कीन्हा ॥
बाजै दुन्दुभि गगन गम्भीरा, सुर मन हर्ष असुर मन पीरा ।
कपि के डर गढ़ लंक सकानी, छुटि बंदि देवतन जानी ॥
ॠषि समुह निकट चलि आये, पवनतनय के पद सिर नाये ।
बार बार अस्तुति करि नाना, निर्मल नाम धरा हनुमाना ॥
सकल ॠषिन मिलि अस मत ठाना, दीन बताय लाल फल खाना ।
सुनत वचन कपि मन हरषाना, रवि रथ उदय लाल फल जाना ॥
रथ समेत कपि कीनि अहारा, सुर्य बिना भयौ अति अंधियारा ।
विनय तुम्हार करैं अकुलाना, तब कपीरा की अस्तुति ठाना ॥
सकल लोक वृतांत  सुनावा, चतुरानन तब रवि उगलावा ।
कहा बहोरि सुनो बलशीला, रामचन्द्र करि हैं बहु लीला ॥
तब तुम उन कर करव सहाई, अबहीं बराहु कानन में जाई
अस कहि विधि निज लोक सिधारा, मिले सखा संग पवनकुमारा ॥
खेलें खेल महा तरु तोरें, ढेर करें बहु पर्वत फोरें ।
जेहि गिरि चरण देहि कपि धाई, गिरि समेत पातालहिं जाई ॥
कपि सुग्रीव बालि को त्रासा, निरख रहे राम धनु आसा ।
मिले राम तहाँ पवन कुमारा, अति आनन्द सप्रेम दुलारा ॥
मणि मुँदरी रघुपति सो पाई, सीता खोज चले सिर नाई ।
शत योजन जलनिधि विस्तारा, अगम अपार देवतन हारा ॥
जिमि सर गोखुर सरिस कपीशा,  लांघि गये कपि कहि जगदीशा ।
सीता चरण सीस तिन नाये, अजर अमर के आशिष पाये ॥
रहे दनुज उपवन रखवारी, एक से एक महाभट भारी ।
जिन्हें मारि पुनि गयेउ कपीशा, दहेउ लंक कोप्यो भुजबीसा ॥
सिया बोध दैं पुनि फिर आये, रामचन्द्र के पद सिर नाये ।
मेरु उपारि आपु छिन माहीं, बाँधे सेतु निमिष इक माहीं ॥
लक्ष्मण शक्ति लागी जबहीं,  राम बुलाय कहा पुनि तबहीं ।
भवन समेत सुखेण लै आये, तुरत सजीवन को पुनि धाये ॥
मग महं कालनेमि कहं मारा, अमित सुभट निशिचर संहारा ।
आनि सजीवन गिरि समेता, धरि दीन्हीं जहं कृपानिकेता ॥
फनपति केर शोक हरि लीन्हा, वरषि सुमन सुर जय जय कीन्हा ।
अहिरावण हरि अनुज समेता, ले गयो तहां पाताल निकेता ॥
जहां रहे देवि अस्थाना , दीन चहै बलि काढ़ि कृपाणा ।
पवनतनय प्रभु कीन गुहारी, कटक समेत निशाचर मारी ॥
रीछ कीशपति सबै बहोरी, राम लखन कीने इक ठोरी ।
सब देवतन की बंदि छुड़ाये ,सो कीरति मुनि नारद गाये ॥
अक्षयकुमार दनुज बलवाना, सानकेतु कहं सब जगजाना ।
कुम्भकरण रावण कर भाई, ताहि निपात कीन्ह कपिराई ॥
मेघनाद पर शक्ति मारा, पवनतनय तब सों बरियारा ।
रहा तनय नारान्तक जाना, पल महं ताहि हते हनुमाना ॥
जहं लगि मान दनुज कर पावा , पवनतनय सब मारि नसावा ।
जय मारुतसुत जय अनुकुला, नाम कृशानु शोक सम तुला॥
जहं जीवन पर संकट होई, रवि तम सम सों संकट खोई ।
बन्दि परै सुमिरे हनुमाना, संकट कटै धरै जो ध्याना ॥
जाको बांध वाम पद दीन्हा, मारुतसुत व्याकुल बहु कीन्हा ।
जो भुजबल का कीन कृपाला, आछत तुम्हें मोर यह हाला ॥
आरत हरन नाम हनुमाना, सादर सुरपति कीन बखाना ।
संकट रहै न एक रती को, ध्यान धरै हनुमान जती को ॥
धावहु देखि दीनता मोरि, कहौं पवनसुत युगकर जोरि ।
कपिपति बेगि अनुग्रह करहु, आतुर आई दुसह दुख हरहु ॥
रामशपथ मैं तुमहिं सुनाया, जवन गुहार लाग सिय जाया ।
पैज तुम्हार सकल जग जाना , भव बंधन भंजन हनुमाना ॥
यह बंधन कर केतिक बाता, नाम तुम्हार जगत सुख दाता ।
करौ कृपा जय जय जगस्वामी, बार अनेक नमामि नमामि ॥
भौमवार कर होम विधाना, सुन नर मुनि वाछिंत फल पावै ।
जयति जयति जय जय जग स्वामी, समरथ पुरुष सुअंतरयामी ॥
अंजनि तनय नाम हनुमाना, सो तुलसी के प्राण समाना ॥
          
  [ दोहे ]
जय कपीश सुग्रीव तुम, जय अंगद हनुमान ।
रामलखन सीता सहित, सदा करौ कल्यान ॥
बन्दौ हनुमत नाम यह, मंगलवार प्रमाण ।
ध्यान धरै नर निश्चय,  पावै पद कल्याण ॥
जो नित पढै यह साठिका, तुलसी कहै विचारि ।
रहै न संकट ताहि को , साक्षी हैं त्रिपुरारि ॥
         जय श्रीराम 

रविवार, 3 अगस्त 2008

॥ शिव तांडव स्तोत्रम् ॥

॥ शिव तांडव स्तोत्रम् ॥
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले , गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम् ।
डमड्डमड्ड्मड्ड्मन्निनादवड्ड्मर्वयं , चकार चण्डताण्डवं तनोतु न: शिव:शिवम् ॥ 1 ॥
जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी-विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्ध्दनि ।
धगध्दगध्दगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके , किशोरचन्द्रशेखरे रति: प्रतिक्षणं मम ॥ 2 ॥
धराधरेन्द्ननन्दिनीविलासबन्धुबन्धुर-स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे ।
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुध्ददुर्धरापदि , क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥ 3 ॥
जटाभुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा-कदम्बकुंकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे ।
दान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे , मनोविनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥ 4 ॥
सहस्त्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर-प्रसूनधुलिधोरणीविधुसराङध्रिपीठभू: ।
भुजंगराजमा्लया निबध्दजाटजूटक: , श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखर: ॥ 5 ॥
ललाटचत्वरज्वलध्दनञ्ज्यस्फुलिंगभा-निपीतपंचसायकं नमन्निलिम्पनायकम् ।
सुधामयुखलेखया विराजमान शेखरं , महाकपालि सम्पदे शिरो जटालमस्तु न: ॥ 6 ॥
करालभाल्पट्टिकाधगध्दगध्दगज्ज्वलध्दनञ्ज्याहुतीकृतप्रचण्डपंचसायके ।
धराधरेन्द्ननन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रकप्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ॥ 7 ॥
नवीनमेघमण्डलीनिरुध्ददुर्धरस्फुरत्कुहुनिशीथिनीतम: प्रबन्धबध्दकन्धर: ।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुर: , कलानिधानबन्धुर: श्रियं जगदधुरन्धर: ॥ 8 ॥
प्रफुल्लनीलपंकजप्रपंचकालिमप्रभावलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबध्दकन्धरम् ।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं , गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे ॥ 9 ॥
अखर्वसर्वमंगलाकलाकदम्बमञ्जरी , रसप्रवाहमाधुरीविजृम्भणामधुव्रतम् ।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं , गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥ 10 ॥
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमभ्दुजंगमश्र्व्स , द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् ।
धिमिध्दिमिध्दिमिद्ध्वनन्मृदंगतुन्गमंगलध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचण्ड्ताण्डव: शिव: ॥ 11 ॥
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंगमौक्तिकस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठ्यो: सुहृद्विपक्षपक्षयो: ।
तृणारविन्दचक्षुषो: प्रजामहीमहेन्द्रयो: , समप्रवृत्तिक: कदा सदाशिवं भजाम्यहम् ॥ 12 ॥
कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुंजकोटरे वसन् , विमुक्तदुर्मति: सदा शिर:स्थमञ्जलिं वहन् ।
विलोललोचनो ललामभाललग्नक: , शिवेति मन्त्रामुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥ 13 ॥
इमं हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं , पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुध्दिमेति सन्त्ततम् ।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं , विमोहनं हि देहिनां सुशंकरस्य चिन्तनम् ॥ 14 ॥
पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं , य: शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरंगयुक्तां , लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भु: ॥ 15 ॥
॥ इति श्रीरावणकृतं शिवताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

शनिवार, 2 अगस्त 2008

अथ शिवमहिम्न: स्तोत्रम्

" श्री हरि "
॥ अथ ध्यानम् ॥
वन्दे देव उमापतिं सुरगुरुं, वन्दे जगत्कारणम् ।
वन्दे पन्नगभुषणं मृगधरं, वन्दे पशुनां पतिम् ॥
वन्दे सूर्य शशांक वह्नि नयनं, वन्दे मुकुन्दप्रियम् ।
वन्दे भक्त जनाश्रयं च वरदं, वन्दे शिवंशंकरम् ॥

॥ अथ शिवमहिम्न: स्तोत्रम् ॥
महिम्न: पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी , स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नस्त्वयि गिर: ।
अथावाच्य: सर्व:स्वमतिपरिणामवधि गृणन्ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवाद: परिकर : ॥ 1 ॥
अतीत:पन्थानं तव च महिमा वाङमनसयोरताद्व्यावृत्त्या, यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि ।
स कस्य स्तोतव्य: कतिविधगुण: कस्य विषय : , पदे त्वर्वाचीने पतति न मन: कस्य न वच: ॥ 2 ॥
मधुस्फ़ीता वाच: परममृतं निर्मितवत स्तव , ब्रह्मन् किं वागपि सुर्गुरोर्विस्मयपदम् ।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवत:, पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुध्दिर्व्यवसिता ॥ 3 ॥
तवैश्वर्यं यत्त्ज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत् , त्रयीवस्तु व्यस्तं तिसृषु गुणाभिन्नासु तनुषु ।
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं , विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधिय: ॥ 4 ॥
किमीह: किंकाय: स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं , किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च ।
अतर्क्यैश्चर्ये तवय्यनवसरदु:स्थो हतधिय: , कुतर्कोऽयं कांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगत: ॥ 5 ॥
अजन्मानो लोका: किमवयववन्तोSपि जगतामधिष्ठातारं , किं भवविधिरनादृत्य भवति ।
अनीशो वा कुर्याद भुवनजनने क: परिकरो , य्तो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ॥ 6 ॥
त्रयी सांख्यं योग: पशुपतिमतं वैष्णवमिति , प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमद: पथ्यमिति च ।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां , नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥ 7 ॥
महोक्ष: खट्वाङ्गं परशुजिनं भस्म फणिन: , कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् ।
सुरास्तां तामृध्दिं दधति तु भवद्भ्रुप्रणिहितां , न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति ॥ 8 ॥
ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं , परौ ध्रौव्याध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये ।
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव , स्तुवञ्जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता ॥ 9 ॥
तवैश्वर्यं यत्नाद्यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरथ: , परिच्छेत्तुं यातावनलमनलस्कन्धवपुष: ।
ततो भक्तिश्रद्धाभरगुरुगृणद्भ्यां गिरिश यत् , स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति ॥ 10 ॥
अयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं , दशास्यो यदबाहूनभृत रणकण्डूपरवशान् ।
शिर: पद्मश्रेणीरचितचरणाम्भोरुहबले: , स्थिरायास्त्वदभ्क्तेरत्रिपुरहर विस्फुर्जितमिदम् ॥ 11 ॥
अमुष्य त्वत्सेवासमधिगतसारं भुजवनं , बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयत: ।
अलभ्या पातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि , प्रतिष्ठा त्वय्यासीद ध्रुवमुपचितो मुह्यति खल: ॥ 12 ॥
यदृध्दिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीमधश्चक्रे बाण: परिजनविधेयत्रिभुवन: ।
न तच्चित्रं तस्मिन्वरिवसितरि त्वच्चरणयोर्न , कस्या उन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनति: ॥ 13 ॥
अकाण्डब्रह्माण्डक्षयचकितदेवासुरकृपाविधेयस्याऽऽसीद्यस्त्रिनयन विषं संहृतवत: ।
स कल्माष: कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो , विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवनभयभंगव्यसनिन: ॥ 14 ॥
असिध्दार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे , निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखा: ।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत् , स्मर: स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्य: परिभव: ॥ 15 ॥
मही पादाघाताद् व्र्जति सहसा संशयपदं , पदं विष्णोर्भ्राम्यदभुजपरिघरुग्णग्रहगणम् ।
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृतजटाताडिततटा , जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ॥ 16 ॥
वियद्व्यापी तारागणगुणितफ़ेनोद्गमरुचि: , प्रवाहो वारां य: पृषतलघुदृष्ट: शिरसि ते ।
जगदद्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृत्तामित्यनेनैवोन्नेयं , धृतमहिम दिव्यं तव वपु: ॥ 17 ॥
रथ: क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो , रथांगे चन्द्रार्कौ रथचरणपाणि: शर इति ।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बरविधिविर्धेयै: , क्रीडन्त्यो न खलु परतंत्रा: प्रभुधिय: ॥ 18 ॥
हरिस्ते साहसं कमलबलिमाधाय पदयोर्यदेकोने , तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम् ।
गतो भक्तत्युद्रेक: परिणतिमसौ चक्रवपुषा , त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागार्ति जगताम् ॥19 ॥
क्रतौ सुप्ते जाग्रत्वमसि फलयोगे क्रतुमतां , क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते ।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदानप्रतिभुवं , श्रुतौ श्रध्दां बद्ध्वा कृतपरिकर: कर्मसु जन: ॥ 20 ॥
क्रियादक्षो दक्ष: क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतामृषीणामार्त्विज्यं , शरणद सदस्या: सुरगणा: ।
क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफलविधानव्यसनिनो , ध्रुवं कर्तु: श्रध्दाविधुरमभिचाराय हि मखा: ॥ 21 ॥
प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं , गतं रोहिदभूतां रिरमयिषुमृष्यस्य ।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं , त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभस: ॥ 22 ॥
स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमहनाय तृणवत् , पुर: प्लुष्टं दृष्टवा पुरमथन पुष्पायुधमपि ।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत देहार्धघटनादवैति , त्वामध्दा वत वरद मुग्धा युवतय: ॥ 23 ॥
श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचा: सहचराश्चिताभस्मालेप: स्त्रगपि नृकरोटीपरिकर: ।
अमंगल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं , तथापि स्मर्तणां वरद परमं मंगलमसि ॥ 24 ॥
मन: प्रत्यक्विचत्ते सविधमवधायात्तमरुत: , प्रहृष्यद्रोमांण: प्रमदसलिलोत्संगितदृश: ।
यदालोक्याह्लादं हृद इव निमज्यामृतमये , दध्त्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत्किल भवान ॥25 ॥
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवह , स्त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च ।
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रतु गिरं , न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत्त्वं न भवसि ॥ 26 ॥
त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरानकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत्तीर्णविकृति ।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभि: , समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् ।। 27 ॥
भव: शर्वो: रुद्र: पशुपतिरथोग्र: सहमहांस्तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् ।
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि , प्रियायास्मै धाम्ने प्रविहितनमस्योऽस्मि भवते ॥ 28 ॥
नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमो , नम:क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नम: ।
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमो , नम: सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नम: ॥ 29 ॥
बहुलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नम: , प्रबलतमसे तत्संहारे हराय नम: ।
जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमोनम: , प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नम: ॥ 30 ॥
कृशपरिणति चेत: क्लेशवश्यं क्व चेदं , क्व च तव गुणसीमोल्लंघिनि शश्वदृद्धि: ।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्-वरद चरणयोस्ते वाक्यपुष्पोपहारम् ॥ 31 ॥
असितगिरिसमं स्यात्कज्जलं सिन्धुपात्रे , सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी ।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं , तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ॥ 32 ॥
असुरसुरमुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दुमौलेग्रंथितगुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य ।
सकलगणवरिष्ठ: पुष्पदन्ताभिधानो रुचिरमलघुवृत्तै: स्तोत्रमेतच्चकार ॥ 33 ॥
अहरहरनवद्यं धूर्जटे: स्तोत्रमेतत् , पठति परमभक्त्या शुद्धचित्त: पुमान्य: ।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र: , प्रचुरतरधनायु: पुत्रवान् कीर्तिमांश्च ॥ 34 ॥
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुति: , अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति त्तत्वं गुरो: परम् ।। 35 ॥
दीक्षा दानं तपस्तीर्थं योगयागादिका: क्रिया : , महिम्न: स्तवपाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ 36 ॥
कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराज: , शिशुशशिधरमौलेर्देवस्य दास : ।
स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात् , स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्यदिव्यं महिम्न: ॥ 37 ॥
सुरवरमुनिपूज्यं स्वर्गमौक्षेकहेतुं , पठति यदि मनुष्य: प्ररांजलिर्नान्यचेता: ।
व्रजति शिवसमीपं किन्नरै: स्तूयमान: , स्तवनमिदममोघमं पुष्पदन्तप्रणीतम् ॥ 38 ॥
श्रीपुष्पदन्तमुखपंकजनिर्गतेन , स्तोत्रेण किल्विषहरेण हरप्रियेण ।
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन , सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेश: ॥ 39 ॥
इत्येषा वांगमयी पूजा श्रीमच्छंकरपादयो:, अर्पिता तेन देवेश: प्रीयतां मे सदाशिव: ॥ 40 ॥
॥ इति श्रीपुष्पदंतविरचितशिवमहिम्न:स्तोत्र: ॥