शनिवार, 28 जून 2008

श्री मानस रस मंजरी (४)

[ गतांक से आगे ]
रघुवंशी सूर्यवंश है । दशरथ जी सूर्यवंशी है ,सूर्यवंश में अवतार लिये हैं । सूर्यनारायण में बारह कला हैं
और तीन कला चन्द्र्मा में है , एक कला अग्नि में है । श्री रामचरित मानस में आया है -
"वन्दऊ नाम राम रघुवर को ,हेतु कृशानु भानु हिमकर को ।"
श्री दशरथ जी सूर्य भगवान को कहते हैं कि, हे सूर्यदेव आप तीनों लोकों का अंधकार दूर करते हो,आपके कुल को कलंक का टीका लगाने वाला व्यर्थ ही श्रीराम का पिता कहलाया । मुझे एकबार क्षमा कर दें।जो में आपसे याचना करना चाहता हुँ वह आशीर्वाद मुझे देने की दया करें,कि मैं किसी को अपना काला मुँह न दिखा सकुँ । क्या माँगते है कि-
"उदय करहु जनि रवि रघुकुल गुर , अवध विलोकि सूल होयहि उर ।
ह्रदय मनाव भोर जनि होई , रामहि जाय कहे जनि कोई ॥ "
हे ,भास्कर आप भारत में उदय ही न हों ,आप अयोध्या में उदय ही न हों !श्री दशरथ जी चाहते है अवध में हमेशा रात ही रहे । जिससे मेरा राम जंगल को तपस्वी बनकर न जाये । नृप कहते हैं कि मुझे दिन नहीं चाहिये -
"उदय करहु जनि रवि रघुकुल गुर , अवध विलोकि सूल होयहि उर "
मुझे प्रकाश नहीं चाहिये , मुझे तो मेरा राम ही चाहिये । मेरी अयोध्यापुरी को,मेरे परिवार को , मेरी प्रजा को राम ही चाहिये , सबेरा नहीं । श्री दशरथ जी को , अयोध्यावासियों को, माताओं को राम ही सूर्य है । पूज्यपाद गोस्वामी जी भी श्रीराम राघव को सूर्य लिखते हैं-
दोहा :- "उदित उदय गिरि मंच पर ,रघुवर बाल पतंग ।
बिकसे संत सरोज सब ,हरषे लोचन भृंग ॥"
जिस समय जनक जी के यहाँ जिस मंच पर भगवान सदाशिव का धनुष भंग करने को गुरु जी की आज्ञा से पहुँचे तो गोस्वामी जी ने श्रीराम को बाल पतंग लिख दिया । उदय के सूर्य ज्यादा तेज नहीं होते, कोई भी बिना चकाचौंध के बालसूर्य को देख सकते हैं । वही सूर्य जब तरुण अवस्था में बारह बजे पर आते हैं,तो देखना कठिन हो जाता है । श्रीराम यहाँ जनकपुरी में ,अयोध्यापुरी में बालसूर्य हैं , जबकि परशुरामजी बारह बजे के सूर्य हैं । देखिये जिस समय शिव धनुष भंग होता है तो आवाज को सुनकर श्री परशुरामजी आते हैं । यहाँ मानसकार लिखते हैं-
"तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा, आयहु भृगुकुल कमल पतंगा ॥"
श्री परशुरामजी को पतंगा , श्रीरामजी को बाल पतंग । आईये, अपने प्रसंग पर - श्री दशरथ जी सोचते हैं कि ,मेरे कुल को प्रकाशित करने वाले श्रीराम बाल सूर्य के समान अयोध्या में रहे तो हमको रात भी अच्छी है क्योंकि ,-
"एहि जग जामिनी जागहि जोगी, परमार्थी प्रपंच वियोगी ॥"
राजा चाहते हैं कि रात रहे ,श्रीहनुमानजी चाहते हैं कि रात जल्दी से हो जाये तो मैं लंका में शीघ्रता से प्रवेश करुँ -
"पुर रखवारे देखि बहु , कपि मन कीन्ह विचार ।
अति लघु रुप धरौं ,निशि नगर करहु पैसार ॥"
लंका में श्रीरामजी नर-नाटक करते हुये कहते हैं कि सूर्य उदय न हो तो अच्छा है । मेरे भाई लक्ष्मन का कोई अहित नहीं होगा । लंका में श्रीरामजी रात चाहते हैं, श्रीहनुमानजी रात चाहते हैं , अयोध्या में श्री दशरथ जी भी रात्रि चाहते हैं -
""उदय करहु जनि रवि रघुकुल गुर , अवध विलोकि सूल होयहि उर "
रात में योगी जन साधना करते हैं । श्री गीताजी अध्याय 2 श्लोक 69 मे
"या निशा सर्व भूतानां तस्यां जाग्रति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भुतानि सा निशा पश्यतो मुने: ॥"
सम्पूर्ण प्राणियों को जो रात्रि के समान है , उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानंद की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ जोगी जागता है । और जिस नाशवान सांसरिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं ,परमात्मा के तत्व को जानने वाले मुनि के लिये वह रात्रि के समान है । श्री हनुमान जी ने भी विभीषण जी को रात्रि में राम-नाम लेने पर ही पहचाना था । निशाचर भी रात्रि में जागते हैं । पर वे काम,क्रोध,लोभ ,मोह की पूर्ति के लिये जागते हैं । जो रात में सोते हैं और रामजी के बनना चाह्ते है सो गलत है । अयोध्यावासी श्रीरामजी के पीछे-पीछे जंगल को जाते हैं और कहते हैं -
"अवध तहाँ जहँ राम निवासू ,तँहई दिवस जँह भानु प्रकासु ॥"
कहते है ज़हाँ हमारे राम जिस जंगल में होगें वही पहाड़ हमारे लिये अयोध्या का सुख़ देगा परन्तु जब यहा सब भक्त जन तमसा नदी के किनारे गहरी नींद में सो गए तो श्री रामचन्द्रजी ने बताया कि रात मे सोने वाले को हमेशा हमेशा को प्राप्त नही हुँ सोते छोड चले गये परन्तु जो जाग रहे थे लक्ष्मण जी सुमन्तजी उनको साथ लेकर ही गये|इस लिये रात्रि भक्तों की साधना के लिये होती है-श्री दशरथ जी कहते है कि रात ही रात रहे|
"ह्रदय मनाव भोरु जनि होई,रामहि जाय कहे जनि कोई ॥"
श्री द्शरथ जी सूर्यदेव से याचना करते है क्योंकि बारह कला सूर्य में होने के कारण बारह "र" से प्रार्थना कर ,प्रत्येक कला को "र" समर्पण करते हैं । एक "र"को हमेशा अपने मन में रखते हैं । और क्या कहते है - बारह महिने होते हैं । आप बारह कला से रक्षा करने की कृपा करें !बारह महिने में छह ॠतु होती है ।
ग्रीष्म,वर्षा,शरद,शिशिर,हेमन्त और बसन्त । छह ॠतु हेतु छह बार नाम लेकर श्रीराम की रक्षा की प्रार्थना करते हैं । श्रीराम को आपकी शरण में सौंपकर-
" राम राम कहि,राम कहि , राम राम कहि राम ।
तनु परिहर रघुवर विरह , राऊ गये सुरधाम ॥ "
शेष अगले अंक में

बुधवार, 25 जून 2008

श्री मानस रस मंजरी (३)

[ गतांक से आगे ]
श्री दशरथ जी रोते हैं ,विलाप करते हैं । प्राणघातक वेदना का अनुभव करते हैं ।
" "हा रघुनंदन प्राणपिरीते, तुम्हबिन जियत बहुत दिन बीते ।
हा जानकी लखन हा रघुवर ,हा पितु हित चातक जलधर ॥"

श्री दशरथ जी प्रिय पुत्र श्रीराम जी की याद करके रोते हैं ।"हा" शब्द विशेष दुखी होने पर ही मुख से निकलता है । सीताहरण के समय सीता जी भी "हा" कहकर विलाप करती है ।
"हा जग एक वीर रघुराया , केहि अपराध बिसारेहु दाया ॥"
सीता जी अपना अपराध पूछती है । अपराध तो था ही -
"सीता परम रुचिर मृग देखा ,अंग अंग सु मनोहर वेषा ॥
सत्यसंध प्रभु वध कर एहि ,आनहू चर्म कहत वैदेही ॥"
पत्नि का धर्म पति को आज्ञा देने का नहीं है । पर सीता जी ने मृगचर्म लाने को अपने पति श्रीराम से कह दिया । यह अपराध था । इस तरह तीन बार "हा" कहकर जानकी जी रोती है ।
"आरतिहरण शरण सुखदायक ,हा रघुकुल सरोज दिननायक ।
हा लक्ष्मण तुम्हार नहीं दोषा ,सो फल पायहू कीन्हेऊ रोषा ॥"
श्री सीता जी स्वंय स्वीकार करती है अपनी गलती को , अपने अपराध को, कि हमने एक तो प्रभु को मृग मारने की आज्ञा दी । दूसरी गलती लक्ष्मण जी पर क्रोध करके माया मृग की आवाज सुन प्रिय देवर लखनलाल को अपने भ्राता श्रीराम के पास वन में भेज दिया ।
तो जो कोई भक्त भगवान को "हा" कहकर रोता है ,उसको भगवान भी "हा" कहकर रोते हैं । सीता जी के लिये रोते हैं -
"हा सुख खानि जानकी सीता ,रुपशील व्रत नेम पुनीता ॥"
भगवान का भक्त से कहना है-
"जो तु आवै एक पग , मैं धावौ पग साठ ।
जो तु सुखे काठ सम , तो मैं लोहे की लाठ ॥"
आईये अपने प्रसंग पर , पिता अपने पुत्र श्रीराम जी के लिये, लक्ष्मण जी के लिये, पुत्रवधु के लिये " हा"कहकर रोते हैं ।
"हा रघुनंदन प्राणपिरीते, तुम्हबिन जियत बहुत दिन बीते ।
हा जानकी लखन हा रघुवर ,हा पितु हित चातक जलधर ॥
दोहा - राम राम कहि,राम कहि , राम राम कहि राम ।
तनु परिहर रघुवर विरह , राऊ गये सुरधाम ॥ "
इन दो चौपाईऔर एक दोहा में 12 (बारह) "ह" आते हैं । जिनका गूढ़ार्थ निकलता है । 10(दस) इन्द्रियाँ होती है । 5(पाँच) कर्मेन्द्रिय-मुख,हाथ,पैर,गुदा, जननेन्द्रिय और पाँच ज्ञानेन्द्रिय-नेत्र,कान,नाक,जीभ और त्वचा । दशरथ जी दसों इन्द्रियों से और मन बुध्दि से रोये, ये बारह हो गये । इसलिये बारह "ह"आये। दशरथ जी रोते हैं-किसी का मत है कि त्रेतायुग की उम्र -
"बारह लाख छियान्वे हजारा,त्रेता रहे सुखी संसारा॥"
बारह लाख की है।दशरथ जी रोते हैं कहते हैं मैंने त्रेतायुग को कलंकित कर दिया।द्वापर और कलयुग के लोग कहेगें कि त्रेता में एक राजा युग को कलंक लगाने वाला दशरथ नाम का हुआ था,जिसने अपने पुत्र को राजतिलक करने,राजा बनाने को कहकर सबेरे देश से,नगर से,गाँव से और पुर से चौदह वर्ष को बाहर निकाल दिया। इसलिये बारह"ह"का उच्चारण आया है।दूसरा भाव पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदासजी ने जब यह प्रसंग लिखने को अपनी लेखनी उठाई और प्रभु का स्मरण किया,तब- "सुमरत राम रुप उर आवा,परमानंद अमित सुख पावा ॥"
तब गोस्वामीजी की हृष्टि कैसी हो गई-
"सुझहि रामचरित मणि मानिक, गुप्त प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ॥"
जब गुप्त प्रगट सब प्रकार के चरित्र दिखने लगे, तब इनको यह भी दिखा कि लक्ष्मणजी जंगल में बारह वर्ष का अखण्ड व्रत करेगें । क्या व्रत करेगें ? बारह वर्ष सोयेगें नहीं ! कितना कठिन व्रत है ? आज किसी को आठ दिन बिल्कुल नींद ना आये तो दिमाग खराब हो जाये । डाक्टर साहब को ढुंढना पड़ेगा । और इतना ही नहीं लखनलालजी ने बारह वर्ष निराम्बु(निर्जल) व्रत किया । इस बात को याद कर तुलसी बाबा के मन में आया होगा राजकुमार होकर इतना कठिन व्रत किया तो बारह बार "ह" लिख दिया ।
"हा रघुनंदन प्राणपिरीते, तुम्हबिन जियत बहुत दिन बीते ।
हा जानकी लखन हा रघुवर ,हा पितु हित चातक जलधर ॥
दोहा - राम राम कहि,राम कहि , राम राम कहि राम ।
तनु परिहर रघुवर विरह , राऊ गये सुरधाम ॥ "
दस इन्द्रिय+अन्तःकर्ण चतुष्ट्यः (मन बुध्दि चित्त अंहकार)ये चौदह हो गये और पाँच प्राण (प्राण,अपान समान,उदान,व्यान ) इन उन्नीसों से "र" बोलकर उन्नीसों को रामजी को समर्पण कर प्राण छोड़ दिये । अपनी वाणी को हमेशा के लिये श्रीराम जी को सौंप दी। इसलिये -

"दोहा - राम राम कहि,राम कहि , राम राम कहि राम ।
तनु परिहर रघुवर विरह , राऊ गये सुरधाम ॥ "
इस दोहे में तेरह "र" आते हैं । चौदह भुवन होते हैं । सब में राम ध्वनि होना चाहिये, इसलिये भी तेरह भुवन में "रकार" भेजकर चौदहवें में आप स्वंय जाते हैं ।
"राऊ गये सुरधाम"
नारद मुनि जी भी यही वरदान माँगते हैं कि ,
"राम सकल नामन ते अधिका ,होऊ नाथ अघ खग गन वधिका ॥"
दोहा :- राका रजनी भगति तव ,राम नाम सोई सोम ।
अपर नाम उडगन विमल , बसहि भक्त उर व्योम ॥"
अर्थ :- क्वाँर के शरद पूर्णिमा की रात्रि को जो चन्द्रमा निकलता है , कहते हैं कि उस चन्द्र से अमृत बरसता है । सो वह रात आपकी भक्ति हो ,रामनाम उस रात्रि के चन्द्र का अमृत हो और आपके जो अनगिनत नाम हैं उस रात्रि के तारागणों के समान भक्तों के आकाशरुपी ह्रदय में हमेशा निवास करे । नारदजी की मनोकामना है कि राका रजनी ही सब भक्तों के ह्र्दय में चौदह भुवनों में हमेशा निवास करे । दशरथ जी भी तेरह भुवनों में "रकार" भेजकर -"राऊ गये सुरधाम"
" दोहा - राम राम कहि,राम कहि , राम राम कहि राम ।
तनु परिहर रघुवर विरह , राऊ गये सुरधाम ॥ "
यह दोहा "रा" अक्षर से शुरु होकर "म" अक्षर पर समाप्त किया है । "रा" और "म" के बीच में अपनी जीवन-लीला समाप्त करते हैं ।
"दोहा :- तुलसी रा के कहत ही , निकसत पाप पहार ।
फिर आवन पावत नहिं , देत मकार किवार ॥ "
इसलिये 'रा" और "म" के मध्य "राऊ गये सुरधाम"
[ शेष अगले अंक में ]

शनिवार, 21 जून 2008

श्री मानस रस मंजरी (२)

सब कुछ सीखा जगत में,लेन देन व्यवहार ।
मरण न सीखा आपने ,वृथा जन्म संसार ॥
श्रीमद गीता जी के अध्याय2,श्लोक 27 में भगवान श्री कृष्ण जी कहते हैं:-
"जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु ध्रुवं जन्म मृतस्य च "
हे अर्जुन, जिसने जन्म लिया है वह निश्चय ही मरेगा,जो मरा है, वह निश्चय ही जन्म लेगा । इसलिये अपने चरित्र को संभालना चाहिये ।
दोहा:- जब तु आया जगत में, जग हर्षे तु रोय ।
ऐसी करनी कर चलो , तु हर्षे जग रोय ॥
जीवन की चिन्ता नहीं ,मौत भजो दिनरात ।
तन मन सब को त्याग कर , करै राम की बात ॥
सतयुग से युग कली लग , जन्मे मरे अनेक ।
जो चिन्ता करे मृत्यु की , "फूलपुरी" कोई एक ॥
रामचरित मानस मँह , प्रगटे मरे अनेक ।
दशरथ सम जो तनु तजो,"फूलपुरी" पद टेक ॥
जो पुज्य श्री दशरथ जी के समान छ:बार श्रीराम का शुभ नाम लेकर और छ:बार केवल "र" बोलकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर देते हैं:-
"हा रघुनंदन प्राणपिरीते, तुम्हबिन जियत बहुत दिन बीते ।
हा जानकी लखन हा रघुवर ,हा पितु हित चातक जलधर ॥
दोहा - राम राम कहि,राम कहि , राम राम कहि राम ।
तनु परिहर रघुवर विरह , राऊ गये सुरधाम ॥ "
ऐसे परम पुज्य श्री दशरथ जी के चरणकमलों में "फूलपुरी" अनंत प्रणाम करते हुये उनके प्राणांत के समय की लीला श्री रामचरित मानस से अपने मन की शान्ति हेतु लिखना चाहता हुँ ।
" सो मोसन कहि जात न कैसे , शाक वनिक मनि गुन गन जैसे ॥"
कोई रास्ता ही नही मिल रहा ,जैसे सब्जी भाजी बेचने वालों को मणि के गुण और मूल्य का कोई अता-पता नही लगता । फिर भी अपने विवेक से रामचरित्र मानस पर अपने भाव व्यक्त करता हुँ ।
जिस समय श्री रामजी का वनवास होता है तब श्री दशरथ जी कहते हैं-
"राम रूप गुन शील सुभाऊ,सुमर सुमर उर सोचत राऊ ।
राज सुनाई दीन्ह वनवासु, सुनि मन भयऊ न हरष हरासु ॥
सो सुत बिछुरत गये न प्राना,को पापी बड़ मोहि समाना ।
श्री दशरथ जी विलाप करते हैं और कहते हैं कि धन्य है उन श्रीराम को जिनके लिये हमने श्री गुरुजी द्वारा कहला दिया कि कल सबेरे आपका राजतिलक होगा । इसलिये हे राम -
"राम करहु सब संयम आजु , जो विधि कुशल निवाहे काजु ।"
और कल को वनवास दे दिया । तो भी मेरे राम को राजतिलक सुनकर हर्ष नहीं हुआ और वनवास सुनकर दुख भी नही हुआ ।
"राज सुनाय दीन्हि वनवासु , सुनि मन भयऊ न हरष हरासु ॥
सो सुत बिछुरत गये न प्राणा, को पापी बड़ मोहि समाना ॥
दोहा :- सखा राम सीय लखन जहँ , तहाँ मोहि पहुचाव ।
नाहित चाहत चलन अब, प्राण कहहु सत भाव ॥
भावार्थ :- श्री दशरथ जी रो रहे हैं और कहते है कि हाय राम,हाय सीते, हाय श्री राम का साथ देने वाले लक्ष्मण, मुझ जैसे पापी के तुम जैसे रामभक्त पुत्र होना मेरे लिये गौरव की बात है । मैं श्री भोलेनाथ शंकर जी से प्रार्थना करता हुँ कि मेरे राम,पुत्रवधु जानकी जी, मेरी प्रिया सुमित्रा के नंदन लखन के पैरों में काँटा भी न लगे ।मेरी बात रखने के लिये जंगल का कष्ट सहते हुये पैरों में जूते भी नहीं नंगे पाँव घूम रहे हैं ।
"राम लखन सीय बिनु पगु पनहि , धरि मुनि वेष फिरहि वन वनहि ॥
दोहा :- अजिन वसन फल असन महि, सयन डास कुश पात ।
बसि तरुतर नित सहत हिम , आतप वर्षा वात ॥"
मेरे ही कारण मेरे सपूत वनों में भटक रहे हैं । (सपूत होते हैं,पूत होते हैं और कपूत होते हैं।)
"वृध्दों की सेवा करै, गृहै शास्त्र की बात ।
गुण सपूत के जानिये , भजै ईश दिनरात ॥
सेवा करे पितु मातु की , मन अनीति नहि भाय ।
पूत कहावत जगत में , सबहिं मिले हरषाय ॥"
सपूत वह होते हैं जो बगैर कहे माता-पिता ,गुरु की सेवा करते है । जैसे राम,लक्ष्मण,भरत,शत्रुघ्न । पूत वह है जो कहने पर सेवा करते है ।
"शास्त्रों की निंदा करै,सयानों को ठुकराय ।
ईश्वर को माने नहीं, सो कपूत कहलाय ॥"
कपूत वह होते हैं जो स्त्री के कहने पर चलते हैं ।माता पिता को ठुकरा देते है । यहाँ तक की भोजन तो क्या प्यास बुझाने के लिये पानी को भी नहीं पूछते ।
जैसे रावण,कुंभकर्ण राक्षस आदि ।

बुधवार, 18 जून 2008

श्री मानस रस मंजरी

जय श्री राम
वन्दनीय पाठकवृन्द,
आपकी सेवा में निवेदन करना चाहता हुँ कि मैं,अपने भगवदस्वरूप साक्षात कृपामुर्ति गुरुजी की एक अनुपम रचना "श्री मानस रस मंजरी" आप गुणीजनों के समक्ष प्रस्तुत करना चाहता हुँ । मेरे गुरुजी अत्यंत सरल व सौम्य स्वभाव के हैं । वे अपने बारे में कहते हैं कि वे कभी विद्याध्ययन हेतु शाला नहीं गये। क्योंकि आर्थिक कारणों से संभव न हो सका । परन्तु उनकी विद्धता,ज्ञान,को महसूस कर इस कथन पर सहसा विश्वास नहीं होता । वे बताते हैं कि,उनका परिवार शिक्षा का ही विरोधी था । उन्होंने अपने उच्च संकल्प के बल पर ही अत्यंत कठिनता से अक्षरज्ञान प्राप्त किया और श्री रामचरित मानस का अध्ध्यन किया । यहाँ-वहाँ सत्संग कर ज्ञान अर्जन किया । अब आप उनकी इस रचना का आंनद प्राप्त करें ।
"श्री गणेशाय नम:" "श्री शारदायै नम:"
"ईश वन्दना"
सवैया-: आदि गणेश गणों के हो नायक , तुव सेये सब आश पुरी है ।
ब्याह समय शिव पार्वती , तुव पूजे तवै उन गाँठ जुरि है …
भुमिसुता पूजा जब करि , तब राम ने सीय तुरन्त बरी है ।
दृष्टि दया की करो मम ऊपर, काज सभी सुभ "फूलपुरी" है ॥
कवित्त:- माता शारदा श्वेताम्बर लसत अंग ,श्वेत वीणा कर में लय स्वर झकारती ।
श्वेत पुष्प माला मातु कंठ में सुशोभित है ,मोतिन की माला कर कंज में सुहावती ॥
श्वेत कंज आसन पर शोभित हो दयामयी, श्वेत कंज हाथ लिये दास दुख जारती ।
श्वेत हंस वाहन लय दौरु,मत विलम्ब करु, "फूलपुरी" जिव्हा पर आसन करु भारती ॥

सकल भूल ऐही मह भरी,बुध्दजन लेहि सुधार ।
"फूलपुरी" ने लिखी यह ,जो मति मंद गवार ॥
जन्म गुसाँई घर भयो , पढ़ो लिखो कछु नाय ।
शाला एक दिन नहिं गयो , कतहुँ पढ़ो नहि जाय ॥
दया करी हनुमान जी , एक निसी कह रहे माँग ।
मैं मूरख जानौ नहीं ,दरशन से बुधि जाग ॥
मन बुधि वाणी सुचिकरन , बुधजन शीश नवाय ।
रामकथा संग्रह कियो , शिशु कछु जानत नाय ॥
छमा करहुँ सज्जन सकल ,जानि सकल बुधि हीन।
भूल सुधारहु आपही , बुधजन परम प्रवीन ॥

सवैया:- श्री रामकथा लिखने के लिये, मन बारहिबार हुलास भरे ।
बल बुध्दि न रंचक है,उर में, नहि चैन परे घबरात फिरे ॥
मति नीच है ऊँच चहे कहवों, कर कैसे के कलम दवात धरै ।
रंचक राम कृपा जबहिं, तब रामकथा सब सूझ परै ॥
भावार्थ:- श्री रामकथा लिखने को मन बार बार कहता है बुध्दि कहती है कि मूर्ख एक दिन भी तो पाठशाला पढ़ने नही गया । कैसे श्री रामकथा लिख पायेगा? तो ह्रदय से आवाज आती है - " मूकं करोति वाचालं,पंगु लंघयते गिरिं । "
अरे ! भगवान की कृपामात्र से गूंगे अधिक बोलने वाले हो जाते हैं, पैरों से लंगड़े दुर्गम पहाड़ पर चढ़ जाते हैं ।
यथा:- "नही मेघ के कंठ,गति, नही अरुण के पाँव ।
वास करें आकाश में, रवि रथ चढ़ के धाव ॥"
बगैर कंठ वाले मेघ के गरजने से पृथ्वी भी दहल जाती है । गरुड़ के भाई अरुण जिनके पैर नहीं है फिर भी वे सूर्य भगवान के रथ का संचालन आकाश मार्ग पर करते रहते हैं । अर्थात जिस पर श्री हरि की कृपा हो जाये उसके सभी कार्य सुगम हो जाते हैं। किसी को सुनाने की क्या आवश्यकता है । चार वेद ,छह शास्त्र , अठारह पुराण भक्तों के लिये भरे पड़े हैं । तू तो अपने मन और वाणी को पवित्र करने के लिये भक्तों का या भगवान का चरित्र स्मरण कर । परन्तु बिना लिखे कैसे स्मरण करेगा ? इसलिये अपने टूटे फूटे शब्दों को कलम से जैसा बने कागज पर लिख । जिससे तू और तेरे जैसे अनेक भूले भटके इस छोटा अ बड़ा आ रुपी पुस्तक को पढ़कर बड़ी पुस्तक रुपी संतोंके पास जाकर सत्संग प्राप्त करके म्रुत्यु लोक से छुटकारा पाने का मार्ग प्राप्त कर सकेगें ।
दोहा:- पवनपूत सम पूत नही, जो अंजनि के लाल ।
दया दृष्टि जेहि पर करे , तेहि डरपत है काल ॥
रसिया रामकथा के ,कथा कहावनु हेतु ।
"फूलपुरी" के ह्रदय में, आय करहु तुम सेतु ॥

"राम अनंत अनंत गुण , अमित कथा विस्तार ।
सुनि आश्चर्य न मानहिं , जिनके विमल विचार ॥
राम अमित गुणसागर , थाह कि पावई कोय ।
संतन सन जस कछु सुनेऊ, तुम्हहिं सुनायऊ सोय ॥"
मृत्युलोक में आय के , मृत्युहि भूले आप ।
पूर्व जन्म के जानिये , उदय भये सब पाप ॥
"दशरथ जी की मृत्यु का रहस्य "

जैसे कि आज का मानव मृत्यु लोक में आकर अपनी मृत्यु को
ही भूल गया है । जैसे :-
"जीवन संवत पंच दशा । कल्पांत न नास गुमान असा ॥ "
मृत्यु लोक में पाँच या दस वर्ष ही जीना है पर मानव समझता है कि मेरा कल्पों तक नाश नही है । ऐसा अभिमान करता है । आइये रामचरित मानस से जीना और मरना सीखें । श्री दशरथ जी के अंत समय की एक चौपाई और एक दोहे पर विचार करें । प्रत्येक मानव संसार में आकर सब कुछ सीखता है । पर मरना नही सीखता जो जरुरी है।

शुक्रवार, 13 जून 2008

शनैश्चर व्रत कथा

जय श्रीराम
शनैश्चर व्रत कथा
यह कथा भविष्य पुराण से ली गई है । एक बार त्रेतायुग में भयंकर अकाल पड़ा । सम्पूर्ण जगत कष्ट से त्राहि-त्राहि कर रहा था । उस घोर अकाल में कौशिक मुनि अपनी पत्नि एवं पुत्रों के साथ, अपना निवास-स्थान छोड़कर जीवन यापन हेतु, दुसरे प्रदेश में निवास करने निकल पड़े । यात्रा के बीच में परिवार का भरण पोषण अत्यधिक कठिन होने के कारण बड़े कष्ट से अपने एक बालक को मार्ग में ही छोड़ दिया ! वह बालक भूख प्यास से व्याकुल हो भटकते हुए एक पीपल के पेड़ के पास पहुँचा । वहाँ समीप ही बावड़ी थी । बालक ने पीपल के फलों को खाकर ठंडा जल पी लिया । उसे बहुत राहत मिली । वह अब वहीं रहकर प्रतिदिन पीपल के फलों का आहार कर भगवान का ध्यान करता । दैवयोग से एक दिन नारद जी का आगमन हुआ । बालक ने प्रणाम किया,आदरभाव से सेवा की । दयालु नारद जी ने उसकी अवस्था,विनय और नम्रता से बहुत ही प्रसन्न होकर उन्होंने बालक को संस्कारित कर वेद की शिक्षा दी तथा साथ ही द्वादशाक्षर वैष्णव मंत्र(ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) का उपदेश दिया ।
अब वह बालक प्रतिदिन भगवानविष्णु का ध्यान और मन्त्र का जाप करने लगा । नारदजी भी उसी के पास रहने लगे । भगवानविष्णु बालक की तपस्या से प्रसन्न होकर गरुड़ पर सवार हो प्रगट हुए । देवर्षि नारद के वचन से बालक ने पहचान लिया ,तब उसने भगवान से परम भक्ति का वरदान माँगा । श्री हरि भगवान ने प्रसन्न होकर बालक को ज्ञानी और योगी का होने का आशीर्वाद दिया । भगवान के वरदान से वह बालक महाज्ञानी महर्षि हो गया ।
एक दिन बालक ने अपने गुरु नारदजी से पूछा-: हे तात ,यह किस कर्म का फल है कि,जिसने मेरे माता-पिता को मुझसे मेरे बचपन में अलग किया, और मुझे अत्यंत दारुण दुखः झेलने पड़े । इसका रहस्य बताने की दया करें प्रभो !
तब देवर्षि नारद ने आकाश की ओर देखते हुए कहा-:बालक, इस शनैश्चर ग्रह के कारण ही तुम्हें यह दुखः झेलने पड़े । और यह सम्पूर्ण जगत भी उसके मंदगति से चलने के कारण घोर कष्ट पा रहा है । देखो,वह अपनी शक्ति पर अभिभानी होकर आकाश में कितना चमक रहा है ।
यह सुन बालक क्रोध से भर उठा । उसने अपनी तपशक्ति से शनैश्चर को आकाश से भुमि पर पटक दिया । जिससे शनैश्चर के पैर टूट गये । नारदजी अभिमानी शनैश्चर को दंड मिलने पर ,प्रसन्न होकर ब्रम्हा, रुद्र,इन्द्र आदि सभी देवताओं को बुलाकर उनकी दुर्गति दिखाई ।
यह देख ब्रम्हाजी ने बालक से कहा-: हे तपोनिष्ठ बालक,तुमने पीपल के फल खाकर कठिन तप किया है । अत:तुम्हारा नाम आज से "पिप्पलाद"होगा । जो कोई भी शनिवार को तुम्हारा भक्ति-भाव से पूजन करेगें,अथवा "पिप्पलाद" इस नाम का स्मरण करेगें,उन्हें सात जन्मों तक शनि की पीड़ा सहन नहीं करनी पड़ेगी । और वे पुत्र पौत्र का सुख भोग करेगें । अब तुम पुन:शनैश्चर को आकाश में स्थापित कर दो, क्योंकि इनका कोई अपराध नहीं है । ग्रहों की पीड़ा से बचने हेतु नैवेद्य निवेदन, हवन,नमस्कार आदि करना चाहिये । ग्रहों का अनादर नही करना चाहिये । पूजित होने पर ये शान्ति प्रदान करते हैं ।
शनि की ग्रहजन्य पीड़ा से निवृत्ति हेतु शनिवार को स्वंय तैलाभ्यंग कर ब्राह्मणों को भी अभ्यंग हेतु तैल-दान करना चाहिये । शनि की लौह-प्रतिमा बनाकर तैलयुक्त लौह-पात्र में रखकर एक वर्ष तक प्रति शनिवार को पूजन करने के बाद कृष्ण पुष्प - दो कृष्ण वस्त्र- कसार-तिल-भात आदि से उनका पूजन कर काली गाय, काला कम्बल, तिल का तेल और दक्षिणा सहित सब पदार्थ ब्राम्हण को प्रदान करना चाहिये । पूजन आदि में शनि के इस मन्त्र का प्रयोग करना चाहिये
शं नो देवीरभिष्ट्य आपो भवन्तु पीतये । शं योरभि स्त्रवन्तु न: ।।
राज्य नष्ट हुए नल को शनिदेव ने स्वप्न में अपने एक मन्त्र का उपदेश दिया था । उसी नाम-स्तुति से नल को पुन:राज्य उपलब्ध हुआ था ।उस स्तुति से शनिदेव की प्रार्थना करनी चाहिये । सर्वकामप्रद वह स्तुति इस प्रकार है -:
क्रोडं नीलांजनप्रख्यं नीलवर्णंसमस्त्रजम
छायामार्तण्डसम्भूतं नमस्यामि शनैश्चरम
नमोअर्कपुत्राय शनैश्चराय
नीहारवर्णान्जनमेचकाय
श्रुत्वा रहस्यं भवकामदश्च
फलप्रदो मे भव सुर्यपुत्र
नमोस्तु प्रेतराजाय कृष्णदेहाय वै नम:
शनैश्चराय क्रूराय शुद्ध्बुद्धिप्रदायिने
य एभिर्नामभि: स्तौति तस्य तुष्टौ भवाम्यहम
मदीयं तु भयं तस्य स्वप्नेअपि न भविष्यति
जो भी व्यक्ति प्रत्येक शनिवार को एक वर्ष तक इस व्रत को करता है उसे कभी शनि की पीड़ा नही सताती । यह कहकर ब्रम्हाजी सभी देवताओ के साथ परमधाम को चले गये और पिप्पलाद मुनि ने ब्रम्हाजी की आज्ञानुसार शनिदेवजी को पुन: आकाश मे प्रतिष्टित कर दिया । महामुनि पिप्पलादजी ने शनिदेव की इस प्रकार प्रार्थना की -:
कोणस्थ: बभ्रु: कृष्णोरौद्रौऽन्तको यम: ।
सौरि: शनैश्चरो मन्द: प्रीयतां मे ग्रहोत्तम ॥
जो व्यक्ति शनैश्चरोपाख्यान को भक्तिपूवर्क सुनता है तथा । शनि की लौह-प्रतिमा बनाकर तैलयुक्त लौह-पात्र में रखकर ब्राम्हण को दक्षिणा सहित दान देता है- उसको कभी शनि से भय नही होता । उस पर सर्वदा शनिदेव प्रसन्न रहते है ।
जय श्री राम

बुधवार, 11 जून 2008

श्री तुलसी महिमा

जय श्री राम
भगवान श्री हरि शंखचुड़ दैत्य का वध करने के पश्चात सती तुलसी को वरदान देते हुए कहते हैं कि हे तुलसी, तुमने मेरे लिये बहुत तपस्या की है अत:तुम मुझे सबसे प्रिय हो । तुम इस शरीर का त्याग कर दिव्य देह धारण कर सदा मेरे समीप रहोगी । तुम्हारा यह पुराना शरीर प्रसिद्ध "गण्डकी" नदी में बदल जायेगा । तुम्हारे केश से पवित्र पेड़ उत्पन्न होंगे, जो तुम्हारे तुलसी नाम से प्रसिद्ध होंगे । तीनों लोकों में देवताओं की पूजा में प्रयुक्त होने वाले जितने भी पत्र-पुष्प हैं उनमें तुलसी प्रधान मानी जायेगी । स्वर्ग,धरती, पाताल और बैकुंठलोक में सर्वत्र तुम मेरे संनिकट रहोगी । तुलसी पेड़ के नीचे का स्थान परम पवित्र एवं मोक्षदायक होंगे । वहाँ सम्पूर्ण तीर्थों एवं समस्त देवों का भी निवास होगा । तुलसी-पत्र से जिसका अभिषेक हो गया, उसे सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान करने एवं समस्त यज्ञों में दीक्षित होने का फल प्राप्त हो गया । हे तुलसी , कोटि सुधा-कलशों के अभिषेक पर मुझे उतनी प्रसन्नता प्राप्त नहीं होती , जितना एक तुलसी-पत्र अपर्ण करने से होती है । हे पतिव्रते, दस हजार गौदान का पुण्य मात्र एक तुलसी-पत्र अपर्ण करने से प्राप्त होता है । मरते समय जिसके मुख में तुलसी- जल पड़ जाय , वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक को जाता है । जो मनुष्य नित्यप्रति भक्तिपूर्वक तुलसी- जल ग्रहण करता है उसे गंगास्नान का फल मिलता है । जो मानव प्रतिदिन मुझे तुलसी-पत्र अपर्ण करता है , वह लाख अश्वमेध यज्ञ का पुण्यभागी होता है । जो मनुष्य तुलसी को हाथ में लेकर या शरीर पर रखकर तीर्थ में प्राण त्यागताहै, वह मेरे धाम को प्राप्त होता है । तुलसी-माला धारण करने से प्रत्येक पग पर अश्वमेध यज्ञ का पुण्यलाभ होता है ।
जो मानव तुलसी को हाथ में लेकर या तुलसी के निकट झुठी शपथ लेता है,वह घोर नरकों में जाता है । जो पूर्णिमा,अमावस्या,द्वादशी और सूर्य-संक्राति को,मध्यान्ह,रात्रि,दोनों संध्याओं, अशौच के समय , तेल लगाकर बिना स्नान ,एंव जूठे कपड़े पहने तुलसी-पत्र तोड़ता है,वह मानों श्री हरि का मस्तक छेदन करते है । श्राध्द , व्रत,दान प्रतिष्ठा तथा देवार्चन हेतु तुलसी-पत्र बासी होने पर भी तीन रात तक पवित्र ही रहता है । धरती पर या जल में गिरा हुआ तथा श्रीहरि को अर्पित तुलसी-पत्र धोकर दुसरे कार्य हेतु शुध्द माना जाता है ।

श्रीबजरंग बाण स्त्रोत

" श्री हनुमते नमः "


निश्चय प्रेम प्रतिति ते , विनय करें सन्मान ।
तेहि के कारज सकल शुभ , सिद्ध करें हनुमान ॥

जय हनुमंत संत हितकारी, सुन लीजै प्रभु विनय हमारी ।
जन के काज विलंब न कीजै , आतुर दौरि महासुख दीजै ॥
जैसे कुदि सिन्धु के पारा , सुरसा बदन पैठि विस्तारा ।
आगे जाय लंकिनी रोका , मारेहु लात गई सुरलोका ॥
जाय विभीषन को सुख दीन्हा , सीता निरखि परमपद लीन्हा ॥
बाग उजारि सिन्धु मह बोरा , अति आतुर जमकातर तोरा ॥
अक्षयकुमार मारि संहारा , लूम लपेटि लंक को जारा ॥
लाह समान लंक जरि गई , जय जय धुनि सुरपुर नभ भई ॥
अब विलम्ब केहि कारन स्वामी , किरपा करहु उर अंतरयामी ॥
जय जय लखन प्राण के दाता , आतुर ह्वै दुख करहु निपाता ॥
जय हनुमान जयति बलसागर , सुर समुह समरथ भटनागर ॥
ॐ हनु हनु हनु हनुमंत हठीले , बैरिहि मारु वज्र के कीले ॥
ॐ हीं हीं हीं हनुमंत कपीसा , ॐ हुं हुं हुं हनु अरि उर सीसा ॥
जय अंजनिकुमार बलवंता , शंकरसुवन वीर हनुमंता ॥
बदन कराल काल कुल घालक , राम सहाय सदा प्रतिपालक ॥
अग्नि बेताल काल मारिमर , भूत प्रेत पिशाच निशाचर ॥
इन्हें मारु तोहि शपथ राम की , राखु नाथ मरजाद नाम की ॥
सत्य होहु हरि शपथ पाई कै , रामदुत धरु मारु धाई कै ॥
जय जय जय हनुमंत अगाधा , दुख पावत जन केहि अपराधा ॥
पूजा जप तप नेम अचारा , नहि जानत कछु दास तुम्हारा ॥
बन उपवन मग गिरि ग्रह माहीं , तुम्हरें बल हौं डरपत नाहीं ॥
जनकसुता हरिदास कहावौं , ताकी सपथ विलम्ब न लावौं ॥
जय जय जय धुनि होत अकासा , सुमिरत होय दुसह दुख नासा ॥
चरन पकरि कर जोरि मनावौं , यहि औसर अब केहि गोहरावौं ॥
उठ उठ चलु तोहि राम दोहाई , पांय परौं कर जोरि मनाई ॥
ॐ चम चम चम चम चपल चलंता , ॐ हनु हनु हनु हनु हनु हनुमंता ॥
ॐ हं हं हांक देत कपि चंचल , ॐ सं सं सहमि पराने खलदल ॥
अपने जन को तुरंत उबारौं , सुमिरत होय अनंद हमारौं ॥
यह बजरंग बाण जेहि मार्रै , ताहि कहौ फ़िरि कवन उबारै ॥
पाठ करै बजरंग बाण की , हनुमंत रक्षा करै प्राण की ॥
यह बजरंग बाण जो जापै , तासो भूत प्रेत सब कांपै ॥
धूप देय जो जपै हमेशा , ताके तन नहि रहे कलेशा ॥
उर प्रतिति द्रुढ सरन ह्वै , पाठ करै धरि ध्यान |
बाधा सब हर करै सब , काम सफल हनुमान ||