शनिवार, 21 जून 2008

श्री मानस रस मंजरी (२)

सब कुछ सीखा जगत में,लेन देन व्यवहार ।
मरण न सीखा आपने ,वृथा जन्म संसार ॥
श्रीमद गीता जी के अध्याय2,श्लोक 27 में भगवान श्री कृष्ण जी कहते हैं:-
"जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु ध्रुवं जन्म मृतस्य च "
हे अर्जुन, जिसने जन्म लिया है वह निश्चय ही मरेगा,जो मरा है, वह निश्चय ही जन्म लेगा । इसलिये अपने चरित्र को संभालना चाहिये ।
दोहा:- जब तु आया जगत में, जग हर्षे तु रोय ।
ऐसी करनी कर चलो , तु हर्षे जग रोय ॥
जीवन की चिन्ता नहीं ,मौत भजो दिनरात ।
तन मन सब को त्याग कर , करै राम की बात ॥
सतयुग से युग कली लग , जन्मे मरे अनेक ।
जो चिन्ता करे मृत्यु की , "फूलपुरी" कोई एक ॥
रामचरित मानस मँह , प्रगटे मरे अनेक ।
दशरथ सम जो तनु तजो,"फूलपुरी" पद टेक ॥
जो पुज्य श्री दशरथ जी के समान छ:बार श्रीराम का शुभ नाम लेकर और छ:बार केवल "र" बोलकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर देते हैं:-
"हा रघुनंदन प्राणपिरीते, तुम्हबिन जियत बहुत दिन बीते ।
हा जानकी लखन हा रघुवर ,हा पितु हित चातक जलधर ॥
दोहा - राम राम कहि,राम कहि , राम राम कहि राम ।
तनु परिहर रघुवर विरह , राऊ गये सुरधाम ॥ "
ऐसे परम पुज्य श्री दशरथ जी के चरणकमलों में "फूलपुरी" अनंत प्रणाम करते हुये उनके प्राणांत के समय की लीला श्री रामचरित मानस से अपने मन की शान्ति हेतु लिखना चाहता हुँ ।
" सो मोसन कहि जात न कैसे , शाक वनिक मनि गुन गन जैसे ॥"
कोई रास्ता ही नही मिल रहा ,जैसे सब्जी भाजी बेचने वालों को मणि के गुण और मूल्य का कोई अता-पता नही लगता । फिर भी अपने विवेक से रामचरित्र मानस पर अपने भाव व्यक्त करता हुँ ।
जिस समय श्री रामजी का वनवास होता है तब श्री दशरथ जी कहते हैं-
"राम रूप गुन शील सुभाऊ,सुमर सुमर उर सोचत राऊ ।
राज सुनाई दीन्ह वनवासु, सुनि मन भयऊ न हरष हरासु ॥
सो सुत बिछुरत गये न प्राना,को पापी बड़ मोहि समाना ।
श्री दशरथ जी विलाप करते हैं और कहते हैं कि धन्य है उन श्रीराम को जिनके लिये हमने श्री गुरुजी द्वारा कहला दिया कि कल सबेरे आपका राजतिलक होगा । इसलिये हे राम -
"राम करहु सब संयम आजु , जो विधि कुशल निवाहे काजु ।"
और कल को वनवास दे दिया । तो भी मेरे राम को राजतिलक सुनकर हर्ष नहीं हुआ और वनवास सुनकर दुख भी नही हुआ ।
"राज सुनाय दीन्हि वनवासु , सुनि मन भयऊ न हरष हरासु ॥
सो सुत बिछुरत गये न प्राणा, को पापी बड़ मोहि समाना ॥
दोहा :- सखा राम सीय लखन जहँ , तहाँ मोहि पहुचाव ।
नाहित चाहत चलन अब, प्राण कहहु सत भाव ॥
भावार्थ :- श्री दशरथ जी रो रहे हैं और कहते है कि हाय राम,हाय सीते, हाय श्री राम का साथ देने वाले लक्ष्मण, मुझ जैसे पापी के तुम जैसे रामभक्त पुत्र होना मेरे लिये गौरव की बात है । मैं श्री भोलेनाथ शंकर जी से प्रार्थना करता हुँ कि मेरे राम,पुत्रवधु जानकी जी, मेरी प्रिया सुमित्रा के नंदन लखन के पैरों में काँटा भी न लगे ।मेरी बात रखने के लिये जंगल का कष्ट सहते हुये पैरों में जूते भी नहीं नंगे पाँव घूम रहे हैं ।
"राम लखन सीय बिनु पगु पनहि , धरि मुनि वेष फिरहि वन वनहि ॥
दोहा :- अजिन वसन फल असन महि, सयन डास कुश पात ।
बसि तरुतर नित सहत हिम , आतप वर्षा वात ॥"
मेरे ही कारण मेरे सपूत वनों में भटक रहे हैं । (सपूत होते हैं,पूत होते हैं और कपूत होते हैं।)
"वृध्दों की सेवा करै, गृहै शास्त्र की बात ।
गुण सपूत के जानिये , भजै ईश दिनरात ॥
सेवा करे पितु मातु की , मन अनीति नहि भाय ।
पूत कहावत जगत में , सबहिं मिले हरषाय ॥"
सपूत वह होते हैं जो बगैर कहे माता-पिता ,गुरु की सेवा करते है । जैसे राम,लक्ष्मण,भरत,शत्रुघ्न । पूत वह है जो कहने पर सेवा करते है ।
"शास्त्रों की निंदा करै,सयानों को ठुकराय ।
ईश्वर को माने नहीं, सो कपूत कहलाय ॥"
कपूत वह होते हैं जो स्त्री के कहने पर चलते हैं ।माता पिता को ठुकरा देते है । यहाँ तक की भोजन तो क्या प्यास बुझाने के लिये पानी को भी नहीं पूछते ।
जैसे रावण,कुंभकर्ण राक्षस आदि ।