बुधवार, 18 जून 2008

श्री मानस रस मंजरी

जय श्री राम
वन्दनीय पाठकवृन्द,
आपकी सेवा में निवेदन करना चाहता हुँ कि मैं,अपने भगवदस्वरूप साक्षात कृपामुर्ति गुरुजी की एक अनुपम रचना "श्री मानस रस मंजरी" आप गुणीजनों के समक्ष प्रस्तुत करना चाहता हुँ । मेरे गुरुजी अत्यंत सरल व सौम्य स्वभाव के हैं । वे अपने बारे में कहते हैं कि वे कभी विद्याध्ययन हेतु शाला नहीं गये। क्योंकि आर्थिक कारणों से संभव न हो सका । परन्तु उनकी विद्धता,ज्ञान,को महसूस कर इस कथन पर सहसा विश्वास नहीं होता । वे बताते हैं कि,उनका परिवार शिक्षा का ही विरोधी था । उन्होंने अपने उच्च संकल्प के बल पर ही अत्यंत कठिनता से अक्षरज्ञान प्राप्त किया और श्री रामचरित मानस का अध्ध्यन किया । यहाँ-वहाँ सत्संग कर ज्ञान अर्जन किया । अब आप उनकी इस रचना का आंनद प्राप्त करें ।
"श्री गणेशाय नम:" "श्री शारदायै नम:"
"ईश वन्दना"
सवैया-: आदि गणेश गणों के हो नायक , तुव सेये सब आश पुरी है ।
ब्याह समय शिव पार्वती , तुव पूजे तवै उन गाँठ जुरि है …
भुमिसुता पूजा जब करि , तब राम ने सीय तुरन्त बरी है ।
दृष्टि दया की करो मम ऊपर, काज सभी सुभ "फूलपुरी" है ॥
कवित्त:- माता शारदा श्वेताम्बर लसत अंग ,श्वेत वीणा कर में लय स्वर झकारती ।
श्वेत पुष्प माला मातु कंठ में सुशोभित है ,मोतिन की माला कर कंज में सुहावती ॥
श्वेत कंज आसन पर शोभित हो दयामयी, श्वेत कंज हाथ लिये दास दुख जारती ।
श्वेत हंस वाहन लय दौरु,मत विलम्ब करु, "फूलपुरी" जिव्हा पर आसन करु भारती ॥

सकल भूल ऐही मह भरी,बुध्दजन लेहि सुधार ।
"फूलपुरी" ने लिखी यह ,जो मति मंद गवार ॥
जन्म गुसाँई घर भयो , पढ़ो लिखो कछु नाय ।
शाला एक दिन नहिं गयो , कतहुँ पढ़ो नहि जाय ॥
दया करी हनुमान जी , एक निसी कह रहे माँग ।
मैं मूरख जानौ नहीं ,दरशन से बुधि जाग ॥
मन बुधि वाणी सुचिकरन , बुधजन शीश नवाय ।
रामकथा संग्रह कियो , शिशु कछु जानत नाय ॥
छमा करहुँ सज्जन सकल ,जानि सकल बुधि हीन।
भूल सुधारहु आपही , बुधजन परम प्रवीन ॥

सवैया:- श्री रामकथा लिखने के लिये, मन बारहिबार हुलास भरे ।
बल बुध्दि न रंचक है,उर में, नहि चैन परे घबरात फिरे ॥
मति नीच है ऊँच चहे कहवों, कर कैसे के कलम दवात धरै ।
रंचक राम कृपा जबहिं, तब रामकथा सब सूझ परै ॥
भावार्थ:- श्री रामकथा लिखने को मन बार बार कहता है बुध्दि कहती है कि मूर्ख एक दिन भी तो पाठशाला पढ़ने नही गया । कैसे श्री रामकथा लिख पायेगा? तो ह्रदय से आवाज आती है - " मूकं करोति वाचालं,पंगु लंघयते गिरिं । "
अरे ! भगवान की कृपामात्र से गूंगे अधिक बोलने वाले हो जाते हैं, पैरों से लंगड़े दुर्गम पहाड़ पर चढ़ जाते हैं ।
यथा:- "नही मेघ के कंठ,गति, नही अरुण के पाँव ।
वास करें आकाश में, रवि रथ चढ़ के धाव ॥"
बगैर कंठ वाले मेघ के गरजने से पृथ्वी भी दहल जाती है । गरुड़ के भाई अरुण जिनके पैर नहीं है फिर भी वे सूर्य भगवान के रथ का संचालन आकाश मार्ग पर करते रहते हैं । अर्थात जिस पर श्री हरि की कृपा हो जाये उसके सभी कार्य सुगम हो जाते हैं। किसी को सुनाने की क्या आवश्यकता है । चार वेद ,छह शास्त्र , अठारह पुराण भक्तों के लिये भरे पड़े हैं । तू तो अपने मन और वाणी को पवित्र करने के लिये भक्तों का या भगवान का चरित्र स्मरण कर । परन्तु बिना लिखे कैसे स्मरण करेगा ? इसलिये अपने टूटे फूटे शब्दों को कलम से जैसा बने कागज पर लिख । जिससे तू और तेरे जैसे अनेक भूले भटके इस छोटा अ बड़ा आ रुपी पुस्तक को पढ़कर बड़ी पुस्तक रुपी संतोंके पास जाकर सत्संग प्राप्त करके म्रुत्यु लोक से छुटकारा पाने का मार्ग प्राप्त कर सकेगें ।
दोहा:- पवनपूत सम पूत नही, जो अंजनि के लाल ।
दया दृष्टि जेहि पर करे , तेहि डरपत है काल ॥
रसिया रामकथा के ,कथा कहावनु हेतु ।
"फूलपुरी" के ह्रदय में, आय करहु तुम सेतु ॥

"राम अनंत अनंत गुण , अमित कथा विस्तार ।
सुनि आश्चर्य न मानहिं , जिनके विमल विचार ॥
राम अमित गुणसागर , थाह कि पावई कोय ।
संतन सन जस कछु सुनेऊ, तुम्हहिं सुनायऊ सोय ॥"
मृत्युलोक में आय के , मृत्युहि भूले आप ।
पूर्व जन्म के जानिये , उदय भये सब पाप ॥
"दशरथ जी की मृत्यु का रहस्य "

जैसे कि आज का मानव मृत्यु लोक में आकर अपनी मृत्यु को
ही भूल गया है । जैसे :-
"जीवन संवत पंच दशा । कल्पांत न नास गुमान असा ॥ "
मृत्यु लोक में पाँच या दस वर्ष ही जीना है पर मानव समझता है कि मेरा कल्पों तक नाश नही है । ऐसा अभिमान करता है । आइये रामचरित मानस से जीना और मरना सीखें । श्री दशरथ जी के अंत समय की एक चौपाई और एक दोहे पर विचार करें । प्रत्येक मानव संसार में आकर सब कुछ सीखता है । पर मरना नही सीखता जो जरुरी है।

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