सोमवार, 4 अगस्त 2008

श्री हनुमत साठिका

" अथ श्री हनुमत साठिका "
     " चौपाईयाँ "
जय जय जय हनुमान अडंगी, महावीर विक्रम बजरंगी ।
जय कपीश जय पवन कुमारा, जय जगवंदन शील आगारा ॥
जय आदित्य अमर अविकारी, अरि मर्दन जय जय गिरधारी ।
अंजनि उदर जन्म तुम लीन्हा, जय जयकार देवतन कीन्हा ॥
बाजै दुन्दुभि गगन गम्भीरा, सुर मन हर्ष असुर मन पीरा ।
कपि के डर गढ़ लंक सकानी, छुटि बंदि देवतन जानी ॥
ॠषि समुह निकट चलि आये, पवनतनय के पद सिर नाये ।
बार बार अस्तुति करि नाना, निर्मल नाम धरा हनुमाना ॥
सकल ॠषिन मिलि अस मत ठाना, दीन बताय लाल फल खाना ।
सुनत वचन कपि मन हरषाना, रवि रथ उदय लाल फल जाना ॥
रथ समेत कपि कीनि अहारा, सुर्य बिना भयौ अति अंधियारा ।
विनय तुम्हार करैं अकुलाना, तब कपीरा की अस्तुति ठाना ॥
सकल लोक वृतांत  सुनावा, चतुरानन तब रवि उगलावा ।
कहा बहोरि सुनो बलशीला, रामचन्द्र करि हैं बहु लीला ॥
तब तुम उन कर करव सहाई, अबहीं बराहु कानन में जाई
अस कहि विधि निज लोक सिधारा, मिले सखा संग पवनकुमारा ॥
खेलें खेल महा तरु तोरें, ढेर करें बहु पर्वत फोरें ।
जेहि गिरि चरण देहि कपि धाई, गिरि समेत पातालहिं जाई ॥
कपि सुग्रीव बालि को त्रासा, निरख रहे राम धनु आसा ।
मिले राम तहाँ पवन कुमारा, अति आनन्द सप्रेम दुलारा ॥
मणि मुँदरी रघुपति सो पाई, सीता खोज चले सिर नाई ।
शत योजन जलनिधि विस्तारा, अगम अपार देवतन हारा ॥
जिमि सर गोखुर सरिस कपीशा,  लांघि गये कपि कहि जगदीशा ।
सीता चरण सीस तिन नाये, अजर अमर के आशिष पाये ॥
रहे दनुज उपवन रखवारी, एक से एक महाभट भारी ।
जिन्हें मारि पुनि गयेउ कपीशा, दहेउ लंक कोप्यो भुजबीसा ॥
सिया बोध दैं पुनि फिर आये, रामचन्द्र के पद सिर नाये ।
मेरु उपारि आपु छिन माहीं, बाँधे सेतु निमिष इक माहीं ॥
लक्ष्मण शक्ति लागी जबहीं,  राम बुलाय कहा पुनि तबहीं ।
भवन समेत सुखेण लै आये, तुरत सजीवन को पुनि धाये ॥
मग महं कालनेमि कहं मारा, अमित सुभट निशिचर संहारा ।
आनि सजीवन गिरि समेता, धरि दीन्हीं जहं कृपानिकेता ॥
फनपति केर शोक हरि लीन्हा, वरषि सुमन सुर जय जय कीन्हा ।
अहिरावण हरि अनुज समेता, ले गयो तहां पाताल निकेता ॥
जहां रहे देवि अस्थाना , दीन चहै बलि काढ़ि कृपाणा ।
पवनतनय प्रभु कीन गुहारी, कटक समेत निशाचर मारी ॥
रीछ कीशपति सबै बहोरी, राम लखन कीने इक ठोरी ।
सब देवतन की बंदि छुड़ाये ,सो कीरति मुनि नारद गाये ॥
अक्षयकुमार दनुज बलवाना, सानकेतु कहं सब जगजाना ।
कुम्भकरण रावण कर भाई, ताहि निपात कीन्ह कपिराई ॥
मेघनाद पर शक्ति मारा, पवनतनय तब सों बरियारा ।
रहा तनय नारान्तक जाना, पल महं ताहि हते हनुमाना ॥
जहं लगि मान दनुज कर पावा , पवनतनय सब मारि नसावा ।
जय मारुतसुत जय अनुकुला, नाम कृशानु शोक सम तुला॥
जहं जीवन पर संकट होई, रवि तम सम सों संकट खोई ।
बन्दि परै सुमिरे हनुमाना, संकट कटै धरै जो ध्याना ॥
जाको बांध वाम पद दीन्हा, मारुतसुत व्याकुल बहु कीन्हा ।
जो भुजबल का कीन कृपाला, आछत तुम्हें मोर यह हाला ॥
आरत हरन नाम हनुमाना, सादर सुरपति कीन बखाना ।
संकट रहै न एक रती को, ध्यान धरै हनुमान जती को ॥
धावहु देखि दीनता मोरि, कहौं पवनसुत युगकर जोरि ।
कपिपति बेगि अनुग्रह करहु, आतुर आई दुसह दुख हरहु ॥
रामशपथ मैं तुमहिं सुनाया, जवन गुहार लाग सिय जाया ।
पैज तुम्हार सकल जग जाना , भव बंधन भंजन हनुमाना ॥
यह बंधन कर केतिक बाता, नाम तुम्हार जगत सुख दाता ।
करौ कृपा जय जय जगस्वामी, बार अनेक नमामि नमामि ॥
भौमवार कर होम विधाना, सुन नर मुनि वाछिंत फल पावै ।
जयति जयति जय जय जग स्वामी, समरथ पुरुष सुअंतरयामी ॥
अंजनि तनय नाम हनुमाना, सो तुलसी के प्राण समाना ॥
          
  [ दोहे ]
जय कपीश सुग्रीव तुम, जय अंगद हनुमान ।
रामलखन सीता सहित, सदा करौ कल्यान ॥
बन्दौ हनुमत नाम यह, मंगलवार प्रमाण ।
ध्यान धरै नर निश्चय,  पावै पद कल्याण ॥
जो नित पढै यह साठिका, तुलसी कहै विचारि ।
रहै न संकट ताहि को , साक्षी हैं त्रिपुरारि ॥
         जय श्रीराम 

रविवार, 3 अगस्त 2008

॥ शिव तांडव स्तोत्रम् ॥

॥ शिव तांडव स्तोत्रम् ॥
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले , गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम् ।
डमड्डमड्ड्मड्ड्मन्निनादवड्ड्मर्वयं , चकार चण्डताण्डवं तनोतु न: शिव:शिवम् ॥ 1 ॥
जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी-विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्ध्दनि ।
धगध्दगध्दगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके , किशोरचन्द्रशेखरे रति: प्रतिक्षणं मम ॥ 2 ॥
धराधरेन्द्ननन्दिनीविलासबन्धुबन्धुर-स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे ।
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुध्ददुर्धरापदि , क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥ 3 ॥
जटाभुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा-कदम्बकुंकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे ।
दान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे , मनोविनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥ 4 ॥
सहस्त्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर-प्रसूनधुलिधोरणीविधुसराङध्रिपीठभू: ।
भुजंगराजमा्लया निबध्दजाटजूटक: , श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखर: ॥ 5 ॥
ललाटचत्वरज्वलध्दनञ्ज्यस्फुलिंगभा-निपीतपंचसायकं नमन्निलिम्पनायकम् ।
सुधामयुखलेखया विराजमान शेखरं , महाकपालि सम्पदे शिरो जटालमस्तु न: ॥ 6 ॥
करालभाल्पट्टिकाधगध्दगध्दगज्ज्वलध्दनञ्ज्याहुतीकृतप्रचण्डपंचसायके ।
धराधरेन्द्ननन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रकप्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ॥ 7 ॥
नवीनमेघमण्डलीनिरुध्ददुर्धरस्फुरत्कुहुनिशीथिनीतम: प्रबन्धबध्दकन्धर: ।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुर: , कलानिधानबन्धुर: श्रियं जगदधुरन्धर: ॥ 8 ॥
प्रफुल्लनीलपंकजप्रपंचकालिमप्रभावलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबध्दकन्धरम् ।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं , गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे ॥ 9 ॥
अखर्वसर्वमंगलाकलाकदम्बमञ्जरी , रसप्रवाहमाधुरीविजृम्भणामधुव्रतम् ।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं , गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥ 10 ॥
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमभ्दुजंगमश्र्व्स , द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् ।
धिमिध्दिमिध्दिमिद्ध्वनन्मृदंगतुन्गमंगलध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचण्ड्ताण्डव: शिव: ॥ 11 ॥
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंगमौक्तिकस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठ्यो: सुहृद्विपक्षपक्षयो: ।
तृणारविन्दचक्षुषो: प्रजामहीमहेन्द्रयो: , समप्रवृत्तिक: कदा सदाशिवं भजाम्यहम् ॥ 12 ॥
कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुंजकोटरे वसन् , विमुक्तदुर्मति: सदा शिर:स्थमञ्जलिं वहन् ।
विलोललोचनो ललामभाललग्नक: , शिवेति मन्त्रामुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥ 13 ॥
इमं हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं , पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुध्दिमेति सन्त्ततम् ।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं , विमोहनं हि देहिनां सुशंकरस्य चिन्तनम् ॥ 14 ॥
पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं , य: शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरंगयुक्तां , लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भु: ॥ 15 ॥
॥ इति श्रीरावणकृतं शिवताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

शनिवार, 2 अगस्त 2008

अथ शिवमहिम्न: स्तोत्रम्

" श्री हरि "
॥ अथ ध्यानम् ॥
वन्दे देव उमापतिं सुरगुरुं, वन्दे जगत्कारणम् ।
वन्दे पन्नगभुषणं मृगधरं, वन्दे पशुनां पतिम् ॥
वन्दे सूर्य शशांक वह्नि नयनं, वन्दे मुकुन्दप्रियम् ।
वन्दे भक्त जनाश्रयं च वरदं, वन्दे शिवंशंकरम् ॥

॥ अथ शिवमहिम्न: स्तोत्रम् ॥
महिम्न: पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी , स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नस्त्वयि गिर: ।
अथावाच्य: सर्व:स्वमतिपरिणामवधि गृणन्ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवाद: परिकर : ॥ 1 ॥
अतीत:पन्थानं तव च महिमा वाङमनसयोरताद्व्यावृत्त्या, यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि ।
स कस्य स्तोतव्य: कतिविधगुण: कस्य विषय : , पदे त्वर्वाचीने पतति न मन: कस्य न वच: ॥ 2 ॥
मधुस्फ़ीता वाच: परममृतं निर्मितवत स्तव , ब्रह्मन् किं वागपि सुर्गुरोर्विस्मयपदम् ।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवत:, पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुध्दिर्व्यवसिता ॥ 3 ॥
तवैश्वर्यं यत्त्ज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत् , त्रयीवस्तु व्यस्तं तिसृषु गुणाभिन्नासु तनुषु ।
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं , विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधिय: ॥ 4 ॥
किमीह: किंकाय: स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं , किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च ।
अतर्क्यैश्चर्ये तवय्यनवसरदु:स्थो हतधिय: , कुतर्कोऽयं कांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगत: ॥ 5 ॥
अजन्मानो लोका: किमवयववन्तोSपि जगतामधिष्ठातारं , किं भवविधिरनादृत्य भवति ।
अनीशो वा कुर्याद भुवनजनने क: परिकरो , य्तो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ॥ 6 ॥
त्रयी सांख्यं योग: पशुपतिमतं वैष्णवमिति , प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमद: पथ्यमिति च ।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां , नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥ 7 ॥
महोक्ष: खट्वाङ्गं परशुजिनं भस्म फणिन: , कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् ।
सुरास्तां तामृध्दिं दधति तु भवद्भ्रुप्रणिहितां , न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति ॥ 8 ॥
ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं , परौ ध्रौव्याध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये ।
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव , स्तुवञ्जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता ॥ 9 ॥
तवैश्वर्यं यत्नाद्यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरथ: , परिच्छेत्तुं यातावनलमनलस्कन्धवपुष: ।
ततो भक्तिश्रद्धाभरगुरुगृणद्भ्यां गिरिश यत् , स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति ॥ 10 ॥
अयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं , दशास्यो यदबाहूनभृत रणकण्डूपरवशान् ।
शिर: पद्मश्रेणीरचितचरणाम्भोरुहबले: , स्थिरायास्त्वदभ्क्तेरत्रिपुरहर विस्फुर्जितमिदम् ॥ 11 ॥
अमुष्य त्वत्सेवासमधिगतसारं भुजवनं , बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयत: ।
अलभ्या पातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि , प्रतिष्ठा त्वय्यासीद ध्रुवमुपचितो मुह्यति खल: ॥ 12 ॥
यदृध्दिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीमधश्चक्रे बाण: परिजनविधेयत्रिभुवन: ।
न तच्चित्रं तस्मिन्वरिवसितरि त्वच्चरणयोर्न , कस्या उन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनति: ॥ 13 ॥
अकाण्डब्रह्माण्डक्षयचकितदेवासुरकृपाविधेयस्याऽऽसीद्यस्त्रिनयन विषं संहृतवत: ।
स कल्माष: कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो , विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवनभयभंगव्यसनिन: ॥ 14 ॥
असिध्दार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे , निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखा: ।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत् , स्मर: स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्य: परिभव: ॥ 15 ॥
मही पादाघाताद् व्र्जति सहसा संशयपदं , पदं विष्णोर्भ्राम्यदभुजपरिघरुग्णग्रहगणम् ।
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृतजटाताडिततटा , जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ॥ 16 ॥
वियद्व्यापी तारागणगुणितफ़ेनोद्गमरुचि: , प्रवाहो वारां य: पृषतलघुदृष्ट: शिरसि ते ।
जगदद्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृत्तामित्यनेनैवोन्नेयं , धृतमहिम दिव्यं तव वपु: ॥ 17 ॥
रथ: क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो , रथांगे चन्द्रार्कौ रथचरणपाणि: शर इति ।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बरविधिविर्धेयै: , क्रीडन्त्यो न खलु परतंत्रा: प्रभुधिय: ॥ 18 ॥
हरिस्ते साहसं कमलबलिमाधाय पदयोर्यदेकोने , तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम् ।
गतो भक्तत्युद्रेक: परिणतिमसौ चक्रवपुषा , त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागार्ति जगताम् ॥19 ॥
क्रतौ सुप्ते जाग्रत्वमसि फलयोगे क्रतुमतां , क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते ।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदानप्रतिभुवं , श्रुतौ श्रध्दां बद्ध्वा कृतपरिकर: कर्मसु जन: ॥ 20 ॥
क्रियादक्षो दक्ष: क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतामृषीणामार्त्विज्यं , शरणद सदस्या: सुरगणा: ।
क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफलविधानव्यसनिनो , ध्रुवं कर्तु: श्रध्दाविधुरमभिचाराय हि मखा: ॥ 21 ॥
प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं , गतं रोहिदभूतां रिरमयिषुमृष्यस्य ।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं , त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभस: ॥ 22 ॥
स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमहनाय तृणवत् , पुर: प्लुष्टं दृष्टवा पुरमथन पुष्पायुधमपि ।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत देहार्धघटनादवैति , त्वामध्दा वत वरद मुग्धा युवतय: ॥ 23 ॥
श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचा: सहचराश्चिताभस्मालेप: स्त्रगपि नृकरोटीपरिकर: ।
अमंगल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं , तथापि स्मर्तणां वरद परमं मंगलमसि ॥ 24 ॥
मन: प्रत्यक्विचत्ते सविधमवधायात्तमरुत: , प्रहृष्यद्रोमांण: प्रमदसलिलोत्संगितदृश: ।
यदालोक्याह्लादं हृद इव निमज्यामृतमये , दध्त्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत्किल भवान ॥25 ॥
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवह , स्त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च ।
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रतु गिरं , न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत्त्वं न भवसि ॥ 26 ॥
त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरानकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत्तीर्णविकृति ।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभि: , समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् ।। 27 ॥
भव: शर्वो: रुद्र: पशुपतिरथोग्र: सहमहांस्तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् ।
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि , प्रियायास्मै धाम्ने प्रविहितनमस्योऽस्मि भवते ॥ 28 ॥
नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमो , नम:क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नम: ।
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमो , नम: सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नम: ॥ 29 ॥
बहुलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नम: , प्रबलतमसे तत्संहारे हराय नम: ।
जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमोनम: , प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नम: ॥ 30 ॥
कृशपरिणति चेत: क्लेशवश्यं क्व चेदं , क्व च तव गुणसीमोल्लंघिनि शश्वदृद्धि: ।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्-वरद चरणयोस्ते वाक्यपुष्पोपहारम् ॥ 31 ॥
असितगिरिसमं स्यात्कज्जलं सिन्धुपात्रे , सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी ।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं , तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ॥ 32 ॥
असुरसुरमुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दुमौलेग्रंथितगुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य ।
सकलगणवरिष्ठ: पुष्पदन्ताभिधानो रुचिरमलघुवृत्तै: स्तोत्रमेतच्चकार ॥ 33 ॥
अहरहरनवद्यं धूर्जटे: स्तोत्रमेतत् , पठति परमभक्त्या शुद्धचित्त: पुमान्य: ।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र: , प्रचुरतरधनायु: पुत्रवान् कीर्तिमांश्च ॥ 34 ॥
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुति: , अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति त्तत्वं गुरो: परम् ।। 35 ॥
दीक्षा दानं तपस्तीर्थं योगयागादिका: क्रिया : , महिम्न: स्तवपाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ 36 ॥
कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराज: , शिशुशशिधरमौलेर्देवस्य दास : ।
स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात् , स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्यदिव्यं महिम्न: ॥ 37 ॥
सुरवरमुनिपूज्यं स्वर्गमौक्षेकहेतुं , पठति यदि मनुष्य: प्ररांजलिर्नान्यचेता: ।
व्रजति शिवसमीपं किन्नरै: स्तूयमान: , स्तवनमिदममोघमं पुष्पदन्तप्रणीतम् ॥ 38 ॥
श्रीपुष्पदन्तमुखपंकजनिर्गतेन , स्तोत्रेण किल्विषहरेण हरप्रियेण ।
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन , सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेश: ॥ 39 ॥
इत्येषा वांगमयी पूजा श्रीमच्छंकरपादयो:, अर्पिता तेन देवेश: प्रीयतां मे सदाशिव: ॥ 40 ॥
॥ इति श्रीपुष्पदंतविरचितशिवमहिम्न:स्तोत्र: ॥

गुरुवार, 24 जुलाई 2008

श्री हनुमान लहरी

जय श्रीराम
" अथ श्री हनुमान लहरी "
दोहा
गुरु पद पंकज धारि उर , सुर नर शीश नवाय ।
मारूत सुत बलवीर कहं , ध्यावत चित मन लाय ॥
प्रथम वन्दि सियराम पद , अवध नारि नर संग ।
वन्दौ चरण सुध्यान धरि , हनुमत कंचन रंग ॥
मन चित देइ सुनौ विनै , हौं तुम दीन दयाल ।
और नहिं कछु वासना , दासहिं करहु निहाल ॥
तात बड़ाई रावरी , बिछुवत जोति अनन्द ।
सब विधि हीन मलीन मति , अहै दीन ब्रजनन्द ॥
जानै जग दातव्यता , नाथ मोर सरवस्य ।
पै बिरलै कोउ जानि हैं , यह अति गूढ़ रहस्य ॥
जय जय दारुण दुःखदलन , महावीर रणधीर ।
कर गहि लेउ उबार प्रभु , आय जुरी अति भीर ॥
गदगद गिरा गुमान तज , जुगल पाणि करि जोर ।
हनुमत अस्तुति करत हुँ ,सिगरी भांति निहोर ॥
" छप्पय छन्द "
जै पवनसुत दयानिधान दारिद दु:ख भंजन ।
जैति अंजनि तनय सदा सन्तन मन रंजन ॥
जैति वीर सिरताज लाज राखऊ मम आजू ।
जै जै रघुवर दास जासु साजेब शुभ काजू ॥
प्रभु जस करि बन्धु सु कहं कियो पार दु:ख सिन्धु सों ।
हनुमंत मेरो दु:ख दूर करो होउ सहाय सु बन्धु सों ॥
जैति जैति दुखहरन सरन अब मोको दीजै ।
जैति जैति हनुमंत अंत न थारो पईजै ।
जै अंजनिसुत वीर धीर अति धरम धुरन्धर ।
जय जय रघुकुल कुमुद चेट जय भच्छक रविकर ।
जय मारुतसुत तेजवान दुख-द्वंद दलैया ।
जय सीता सुख मूल तूल सम लंक जलैया ।
रघुवर कर सब काज लाल तुम आप संवारो ।
रुचिर वाटिका दशकन्धर कर नाथ उजारो ।
वानर दल कहं विजय तात तुम आप दिवायो ।
लंका कहं सन्धान करी सीता सुधि पायो ।
सुग्रीवहिं पहं राम आनि शुभं सखा बनायो ।
लाय विभीषण नाथ निकट तुम अभय करायो ।
सागर उतरेउ पार मेल मुद्रिका मुख माहीं ।
सुन शुभमय संवाद अचरज कोऊ नाहीं ।
लाय सजीवनि मुरि लखन कहं जीवित कीनो ।
शोक जलधि सो आप काढ़ि रघुवर कहं लीनो ।
रघुपति सादर सखा भाषि उर लावत भयऊ।
सकल शोक तत्काल ह्रदय सों बाहर गयऊ ।
श्रीमुख तेरे विशद गुणन को भाष्यो स्वामी ।
भरत बाहू बल होय तोहि कह अन्तरयामी ।
भाखि सुखद संवाद तात भय भरत नसायो ।
हरषि सुजस तत्काल अवध नारी-नर गायो ।
रघुपति कर कछु काज तात तुम बिन नहिं सरितो ।
सुरपुर मो जय जयति शब्द तुम बिन को भरितो ।
दोहा :- देइ बड़ाई वानरन ,असुरन को वध कीन ।
तो सम को प्रिय सीय को ,जासु शोक हर लीन ॥
जय जय शंकर सुवन जयति जय केसरीनन्दन ।
जय जय पवनकुमार जयति रघुवर पद वन्दन ॥
जय जय जनककुमारी प्यारी यह रघुपति पायक ।
जयति जयति जय जयति तात सुर साधु सहायक ॥
सकल द्वार सों हार हाय तुव द्वारहिं आयऊँ ।
दानशीलता देखि रावरी हिय सुख पायऊँ ॥
या दर सो महरूम तात अब कहां सिधारुं।
विपत काल में अहो नाथ अब काहि पुकारुं ॥
कर गहि लेउ उबार नाथ हूँ दास तिहारो ।
कर गहि लेउ उबार नाथ निज ओर निहारी ।
कर गहि लेउ उबार नाथ सिगरी विधि हारी ॥
गहि कर अजऊं अबारु नाथ भव सिन्धु अथाहै ।
गहि कर अजऊं अबारु नाथ ब्रज डूबन चाहै ॥
द्रवहु द्रवहु यहि काल नाथ मोको कोऊ नाहीं ।
द्रवहु द्रवहु यहि काल हार आयऊं तुव पाहीं ॥
द्रवहु द्रवहु हनुमत कपि दल के सिरताजू ।
द्रवहु द्रवहु कपिराज ताज तुम सन्त समाजू ॥
विनवत हौं कर जोर अजौं टारहु मम संकट ।
विनवत हौं कर जोर नाथ काटहु मम कंटक ॥
विनवत हो हे नाथ दया कर रन ते हेरहु ।
विनवत हो हे नाथ यह दारुण दुख टेरहु ॥
पद गहि विनवौं नाथ तोहिं कहं कस नहिं भावै ।
पद गहि विनवौं हाय नाथ तुव दया नहिं आवै ।
पद गहि विनवौं हाय अजहु मो अभय कीजै ।
पद गहि विनवौं हाय अजहु मो सुख सम्पत्ति दीजै ॥
सुखसागर आनन्द धन सन्तन के सिरमौर ।
दुख वन पावक नाथ तुम , सिर पर सोहत खौर ॥
रोला छन्द
आज जुरयो यहि काल मोहि पै दारुण सोको ।
सूझत ना तिहुं लोक मोहि तोसो कोउ मोको ।
स्वारथ हित सब जगत मांझ राखत है प्रीती ।
पै रौरी हे नाथ अहै अति अनूठी रीती ।
हाय हाय है नाथ हाय अब मों न बिसारहु ।
हाय हाय है नाथ हाय अब कोप निवारहु ।
धन बल विद्या हाय कछु नहीं मो ढिग सांई ।
कवन सम्पदा कवन तात कब तो बिन पाई ।
दीन हीन सब भांति हुजिये वेग सहायक ।
फेरिये कृपा कटाक्ष आप सब विधि सब लायक ।
सुखद कथा तुव हाय नाथ कस दीन सुभाखै ।
सदा सुचरन पाहिं चित्त आपन कस राखै ।
काम क्रोध मद लोभ मोह मोहिं सदा सतावैं ।
चित्त वित्त सो हीन दीन कस तो कहं पावैं ।
अजहुं होय सहाय मोर सब काज संवारहु ।
गयऊ सकल विधि हारि हाय अब मोहि संभारहु ।
सदा कहत सब लोग आप कहं संकटमोचन ।
सदा कहत सब लोग आप दारुण दुखमोचन ।
अपनहिं ओर निहारि नाथ मो कहं जनि हेरहु ।
आय जुरेउ दुख विकट ताहि कहं तुरतहिं टेरहु ।
और कहौ कत नाथ तोहिं कह बहुत बुझाई ।
और कहौ कत हाय मोहि सों कहि नहि जाई ।
सदन गुनन के खान दीन हित जन सुखदायक ।
पवनपुत्र दुख देख अजहुं प्रभु होहु सहायक ।
सोरठा :- अजहुं होय सहाय , तात निवारो दुख सब ।
कहा कहो समुझाय ,अजहुं न बिगरेऊ काज कछु ।
हरिगीतिका छन्द
बहु भांति विनय बहोरि हे प्रभु जोरि कर भाखत अहौं ।
तुव चरन रत मम मन रहे कछु और वर जासो लहौं
रघुवरी पायन पदुम पावन भृंग मोहि बनाईये ।
भव सिन्धु अगम अगाध सो प्रभु पार अजहु लगाईये ।
तुम तजि कहों कासों विपति अब नाथ को मेरी सुनै ।
रावरि भरोस सुवास तजि प्रभु और को कछु न गुनै ।
वैरि समाज विनाश कर हनुमान मोहि विजयी करौ ।
मेरी ढिठाई दोष अवगुन पै न चित्त सांई धरौ ।
जब लगि सकल न गुनान तजि नर आइ राउर पद गहै ।
तब लगि दावानल पाप को बहुत भांति तन मन ही दहै ।
जब लगि न रावरि होय नर सब भांति मन कर्म वचन ते ।
तब लगि न रघुवर दास होत करोर जोखिम यतन ते ।
यहि मान जिय परमान निश्चय सरन राउर हम गहै ।
परलोक लोक भरोस तजि नित नाथ का दरशन चहै ।
हम अपनि ओर निहोर बहु विधि नाथ नित विनती करो ।
हरषाय सादर नाथ तुम गुन गात निज हियरो धरो ।
जनि करहुं मोहि अनाथ नाथ सुदास हूँ मैं रावरो ।
हनुमान हैं शुचि पतित पावन दास जो पै रावरो ।
अबहुं करो सनाथ नाथ न तो जगत मोहि तोहि का कहै ।
यह रुचिर पावन स्वामि सेवक नेह नातो क्यौं रहै ।
दोहा :- विजय चहैं निज काज महं, हनुमत कहं सुनाय ।
लखि मेरी अज दुरदसा, द्रवहु अजहुं तुम धाय ।
सोरठा
हार देत सब काज , नाथ रावरे हाथ महं ।
सजहु सकल शुभ साज , भजहु जानि अब मोहि तजि ।
पंगु भई मो बुध्द , अकथ कथा कस कहि सकौं ।
करहु काज मम सिद्ध , और कहा तोसौं कहौं ।
सुनै न समुझे रीत , मगन भयो मन प्रेम महं ।
अब न सिखावहु नीत , यासो मोहि न काज कछु ।
नहि दर छाड़ब हाय , मारहु या जीवित राखहु ।
ब्रजनन्दन बिलखाय , भाखत साखी दैं सियहिं ।
पाहि पाहि भगवन्त , अब सुधि लीजै दास की ।
दीजै दरस तुरन्त , करिये कृतारथ दीन जन ।
मांगत दोउ कर जोरि , अभै दान तुम सन सदा ।
बारहि बार निहोरि , कहत करहु फुर मो वचन ।
जो याको चित्त लाय करे , पाठ शुचि प्रेम सों।
ताकर सकल बलाय , हरहु दरहु दारुण विपति ।
दोहा :-" हनुमान लहरी " पढ़त , हिय धरि पवनकुमार ।
सुजन दया करि दास पै , छमिहैं चूक अपार ।

जय श्रीराम

मंगलवार, 8 जुलाई 2008

श्री मानस रस मंजरी (७)

गताँक से आगे----
राजा विलाप करते है , दीन हीन की तरह -
" " दोहा - राम राम कहि,राम कहि , राम राम कहि राम ।
तनु परिहर रघुवर विरह , राऊ गये सुरधाम ॥ "
श्रीगोस्वामीजी ने इस दोहे को तेरह "र" किसलिये दिये है , यह तो मानसकार संत ही समझ सकते हैं । अपन तो अपनी संतोष के लिये लिख रहे हैं । श्रीतुलसीदास महाराजजी ने दशरथजी के मुख से दो चौपाई,एक दोहा में
बारह "ह" बुलवाये -
" हा रघुनंदन प्राणपिरीते, तुम्हबिन जियत बहुत दिन बीते ।
हा जानकी लखन हा रघुवर ,हा पितु हित चातक जलधर ॥
दोहा - राम राम कहि,राम कहि , राम राम कहि राम ।
तनु परिहर रघुवर विरह , राऊ गये सुरधाम ॥ "
दोहा की दुसरी लकीर में सात "र" गोस्वामीजी ने स्वंय अपनी तरफ़ से लिखे हैं । शायद उन्होंने सोचा होगा कि सातों द्वीप में दशरथजी जैसा भाग्यशाली पुरुष नहीं हुआ , जो बारह "र" बोलते हुये शरीर त्यागे । "र" कोई साधारण अक्षर नहीं है -
"रकार ईश्वर मकार जीव , आकार माया जान ।
तीनों मिल ताली बजी , संसय बिहंग उड़ान ॥"
मारीच कहता है - "र" का प्रभाव बताता है -
"रा असनाम सुनत दसकंधर , रहत प्राण नहि मम उर अंतर ।"
रामनाम का प्रभाव भगवान शंकर जी जानते है -
" नाम प्रभाव जान शिव नीके ,कालकूट फल दीन्ह अमीके ॥"
जिस समय समुद्र-मंथन से हलाहल विष निकला , उस जगह का तेज देवताओं को, सात स्वर्ग को नष्ट किये दे रहा था ।
"जरत सकल सुर वृन्द , विषम गरल जेहि पान किय ।"
तब भोले भगवान ने अपने इष्ट का ध्यान कर पहले "रा" बोलकर उस हलाहल जहर को पी लिया और ऊपर से "म" शब्द का ढक्कन लगा दिया । अर्थात "रा"और "म" के बीच में जहर को रखने या पीने से विष का असर नहीं हुआ । शंकरजी ने उस हलाहल को अपने कंठ में रखा । जिससे उनका कंठ नीला हो गया और वे नीलकंठ कहलाये । जहर के खाने से प्राणी मर जाता है । परन्तु इस नाम के प्रभाव से -
" कालकूट फल दीन्ह अमीके "
ऐसे नाम को दशरथजी छह बार "राम" और छह बार केवल "र" बोलते हुये -" राऊ गये सुरधाम "
यह संवाद जब वशिष्ठजी ने सुना और अन्य मुनिजनों ने सुना तो आश्चर्यचकित हो सोचने लगे -
" जन्म जन्म मुनि जतनु करा्हीं , अंत राम कहि आवत नाहीं ।"
मुनि समुह में एक चर्चा का विषय बन गया । अरे ! राजा दशरथ ने प्राण त्यागते समय एक बार नहीं छह बार "राम" और छह बार केवल "र" कहा । धन्य है ! वह राजा अज जिनके ऐसे पुण्यशाली बड़भागी पुत्र हुए ।
इसीलिये शायद श्री गोस्वामीजी ने रावण, कुंभकर्ण के पिता का नाम अपनी रामचरित मानस में नहीं लिखा । जिससे ऐसे नालायक पुत्र हो जो घड़ों से , मटकों से शराब पी जाये । मांस के लिये मरे हुये नहीं बल्कि जीवित भैंस, बोदा खा जाय । कुंभकर्ण के बारे में लिखा है कि , जब वह जागा तब रावण ने उसके लिये पीने-खाने का क्या प्रबन्ध किया । एक प्लेट खारा या आलूपोंडे, समोसा नहीं मँगाया , क्या मँगाया--
" रावण मांगेहु कोटि घट , मद अरु महिष अनेक ।"
" महिष खाइ करि मदिरा पाना , गर्जा वज्राघात समाना ।"
" रण मदमत्त फ़िरे जग धावा , प्रति भट खोजत कतहु न पावा ।
पुनि पुनि सिंहनाद करि भारी , देय देवतन्ह गारि प्रचारी ।"
दुष्ट कलह प्रिय होते हैं सज्जन ,संत शान्तिप्रिय होते हैं । जब रावण सब प्रकार का वैभव और बल पा चुका , तो शान्ति से सुख भोगना था या भजन करता ! पर नहीं --
" रण मदमत्त फ़िरे जग धावा , प्रति भट खोजत कतहु न पावा ।
पुनि पुनि सिंहनाद करि भारी , देय देवतन्ह गारि प्रचारी ।"
इसीलिये रावण के पिता ,रावण के बड़े भाई की कोई चर्चा नहीं बल्कि इनका नाम भी नहीं दिया ।
इनका प्रमाण मिलता है अदभुत रामायण में ( सप्तदस सर्ग श्लोक 40 )
" सुमाली राक्षसश्रेष्ठः कैकसी नाम तत सुता,
मुने विश्रवः पत्नि सासुत रावण द्वयम ॥"
सुमाली नाम का एक बड़ा भारी राक्षस था जिसकी कन्या का नाम कैकसी था । वह मुनि विश्रवा की पत्नि हुई , जिससे दो रावण नाम के पुत्र हुये ।
" एक सहस्त्र वदनौ , द्वितीयौ दशवक्रकः । जन्म कालै सुरैशान्तकमाकाशे रावण द्वयम ॥"
बड़ा भाई हजार मुखवाला और छोटा दस मुखवाला जो लंका में था । बड़ा भाई सहस्त्रमुख रावण पाताल में निवास करता था । जिसे बाद में श्री सीताजी ने इसका संहार किया था । ऐसी कथा अदभुत रामायण में आती है ।
ऐसे कुपुत्रों का नाम लेना भी पाप होता है । तो मुनि लोग श्रीदशरथजी के पिताजी की जयजयकार करने लगे और कहने लगे -
" " जन्म जन्म मुनि जतनु करा्हीं , अंत राम कहि आवत नाहीं ।"
मुनिजन कहते हैं कि , धन्य उन दशरथजी को जो केवल श्री राम का नाम ही नहीं , साथ में भक्तिस्वरुपा श्री सीताजी जो परब्रम्ह की माया , आदिशक्ति को भी स्मरण करते हैं ,और साथ ही वैराग्य का भी स्मरण करते हैं । हमको भी याद रखना है कि हम केवल भजनानंदी ही न बन जाये । भगवान को पाने के लिये भक्ति और वैराग्य की भी जरुरत है । तभी तो दशरथ जी भी विरागी लक्ष्मण की याद करते हैं -
"हा जानकी लखन हा रघुवर "
जानकी जी को याद कर रहे हैं । जानकीजी कौन हैं ? जिस समय श्री शंकरजी, ब्रह्मादि सब देवता सुमेरु पर्वत पर परब्रह्म परमात्मा से रावण का अत्याचार सुनाने को आतुर हो स्तुति करने लगे तब आकाशवाणी हुई और ब्रह्यवाणी ने कहा । हम अंशों सहित अवतार लेगें , साथ ही आदिशक्ति भी अवतार लेगी ।
" आदिशक्ति जेहि जग उपजाया , सो अवतरहि मोरि यह माया ।"
श्रीदशरथजी आदिशक्ति स्वरूपा सीताजी की याद करते करते प्राण त्याग दिये । सीताजी अयोध्या में रह जाती या सुमन्तजी के साथ गंगा किनारे से लौट आती तो भी श्रीदशरथजी के प्राण नहीं जाते । श्रीदशरथजी ने कहा था -
" जेहि विधि अवध आव फिरि सीया , सो रघुवरहि तुम्हहि करनीया ॥
श्री सुमन्तजी, श्री राम जी को बताते हैं कि,राजा श्रीदशरथजी ने कहा है- जैसे भी बने तुम चार दिन सीता को जंगल घुमा कर वापस ले आना , नहीं तो मैं जीवित न रह पाऊँगा ।
"नतरू निपट अवलंब विहीना , मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना ।"
तीनोंके वियोग में तीनों का नाम लेते-लेते - " राऊ गये सुरधाम " ।
सात "र" तुलसी बाबा ने अपनी तरफ़ से लगाये तो ,सोचा होगा कि , जब श्रीराम ने धनुष तोड़ा था तो स्वर्ग के सातों लोक के वासी-( भू,भुवः,स्वः,जन,तप,मह,और सत्यलोक )धनुष-भंग की आवाज से घबराकर अपने कानों में उंगली डालकर रह गये थे । इसी तरह नीचे के सातों लोक ( तल ,अतल,वितल,सुतल,तलातल,रसातल और पाताल ) श्रीगोस्वामी जी ने लिखा ---
" महि पाताल नाक यसु व्यापा , राम बरि सिय भंजेहु चापा ॥ "
" छंद - सुर असुर मुनि कर कान दीन्हे, सकल विकल विचारहिं "
पातालवासी असुर,ऊपर के लोकवासी देवता और मृत्युलोकवासी मुनि । ऐसे प्रभावशाली श्रीरामजी के पिताजी के स्वर्गवास की सूचना , बाबा तुलसी सात "र" लिखकर सात लोकों में पहुँचाते हैं । जो भी हो उसको भगवान ही जाने ।
शेष अगले अंक में-----

रविवार, 6 जुलाई 2008

श्री मानस रस मंजरी (६)

गताँक से आगे ----
जिस समय मानव पर संकट आता है , उस समय अपने भी पराये हो जाते हैं । जैसे कमल, तालाब या समुद्र में होता है । पर पाला या तुषार से उसकी कोई रक्षा नहीं करता । जबकि समुद्र में उत्पन्न होने से वरुण देव उनके पिता हुये,
कमल से ब्रह्मा हुये अर्थात ब्रह्माजी उनके पुत्र हुये । सागर से ही अमृत, चन्द्रमा, रंभा, लक्ष्मीजी, निकली , ये सब कमल के सहोदर हुये । लक्ष्मीपति भगवान विष्णु इनके जीजाश्री लगे । परन्तु इन सब के रहते तुच्छ तुषार से कमल बच नहीं पाता !
" सवैया :- वारिध तात हते ,विधि से सुत , अमृत सोम सहोदर जोई ।
रंभा रमा जिनकी भगिनी , मघवा मधुसुदन से बहनोई ॥
तुच्छ तुषार ने मार दिये , पै करि ना सहाय हते सब कोई ।
जै दिन है दुख के सुन रे नर ,ता दिन होत सहाई ना कोई ॥"
आज श्रीदशरथ जी की कोई नहीं सुनते । दशरथजी कोई साधारण व्यक्ति नहीं है .
"दोहा :- दसों इन्द्रियाँ बस करें , दसों दिशा रथ जाय ।
राजन ऐसे लाल का , दशरथ नाम कहाय ॥"
जिसने अपनी दसों इन्द्रियाँ जीत ली है , दसों इन्द्रियाँ का जिसने रथ बना लिया है । जिसने अपनी दसों इन्द्रियाँ को विषयों से रोककर प्रभु को समपर्ण कर दिया , उसका नाम दशरथ होता है । अपनी दसों इन्द्रियाँ को विषयों की पूर्ति में लगा देता है । उसे दशमुख कहते हैं । वही रावण होता है । इसी को मोह कहते है । इसी रावण को अज्ञान कहते हैं । जिनके मारने को ज्ञानस्वरूप दशरथ से (जिसने अपनी दसों इन्द्रियाँ जीत ली है )
"दोहा :- दसों इन्द्रियाँ बस करें , दसों दिशा रथ जाय ।
दस सिर रिपु उपजै, सुवन कहिये दशरथ ताय ॥ "
ज्ञानस्वरूप दशरथजी को श्री सुमन्तजी कहते हैं :-
" सचिव धीर धरि कह मृदु बानी ,महाराज तुम पंडित ज्ञानी ॥ "
तो ज्ञानी दशरथजी से ज्ञानस्वरूप श्रीराम प्रगट होते हैं । बिराग प्रगट होता है । ज्ञान की पत्नि भक्ति ,ज्ञान का भाई बिराग है। सो लक्ष्मणजी वैराग्य है । भक्ति सीताजी है ।
" दोहा :- सानुज सीय समेत प्रभु , राजत पर्ण कुटीर ।
भगति ज्ञान वैराग जनु , सोहत धरे शरीर ॥ "
राजा दशरथजी धर्म के प्रतीक हैं । लखन विराग के और सीताजी भक्ति की प्रतीक हैं ।
" धर्म ते विरति योग ते ज्ञाना , ग्यान मोक्षप्रद वेद बखाना । "
धर्मरूप दशरथ को धन से विरति हुई ,तब यज्ञ किया । धर्म और विरति के योग से ज्ञानस्वरूप श्रीराम प्रगट होते हैं । जो अधर्मरूप रावण, अज्ञानरूप रावण है उसका परिवार, मोह रावण है , उसका भाई कुंभकर्ण अहंकार है । और पुत्र मेघनाथ काम का प्रतीक है ।
" मोह दसमौलि तदभ्रात: अहंकार पाकारिजित काम विश्राम ॥"
श्री कागभुशुण्डजी कहते हैं :-
" तात तीन अति प्रबल खल , काम क्रोध अरु लोभ ।
मुनि विज्ञान धाम उर , करहि निमिष मह क्षोभ ॥"
काम,क्रोध और लोभ इन तीनों को ज्ञानी ही जीत सकता है । ज्ञानी के पास जो संतोष रुपी कृपाण है ।
ईश भजन सारथी सुजाना , विरति चर्म संतोष कृपाणा ॥
अज्ञानरूप रावण को जीतने को भगवान का भजन ही सारथी है । विराग रुपी ढाल हो जिस पर शत्रु का किया हुआ प्रचंड प्रहार झेला जा सके । और तीनों काम,क्रोध और लोभ रुपी शत्रुओं का संहार संतोष रुपी कृपाण से होता है । श्री कागभुशुण्डजी कहते हैं :-
" बिन संतोष ना काम नसाहीं , काम अछत सुख सपनेहु नाहीं ॥"
बिना संतोष के काम का नाश नहीं होता । काम के रहते सपने में भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता । क्रोधरुपी शत्रु को भी संतोष रुपी तलवार से नष्ट कर सकता है । लक्ष्मणजी परशुरामजी से कहते हैं -
" नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू , जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू "
संतोष से ही क्रोध पर विजय होती है । लोभ रुपी शत्रु को भी संतोष रुपी तलवार से जीता जा सकता है ।
" उदित अगस्ति पंथ जल सोषा , जिमि लोभहि सोषई संतोषा ।"
अपने अकेले एक संतोष रुपी कृपाण से रावण, कुंभकर्ण,मेघनाथ आदि सभी शत्रु जीते जाते हैं । श्री दशरथ जी धर्म है,ज्ञानी है । उनके परिवार भक्ति,ज्ञान,वैराग्यरुपी श्रीराम,श्रीसीता और श्रीलखनलाल जी अज्ञान की लंका को जीतने को धर्मरथ के बाईस अंग श्रीराम के पास थे,ऐसे श्रीरामजी के पिताजी आज देवताओं की आशा कर रहे हैं ।
मेरे सुकृत को बचाईये -
" जनक सुकृत मूरति वैदेही , दशरथ सुकृत राम धरि देही ।"
मेरे सुकृतरुपी राम बन को न जायें । आज कोई देवता भी दशरथ जी के पक्ष में नहीं है -
" विपति बराबर सुख नहीं , जो थोड़े दिन होय ।
इष्ट मित्र अरु बाँधव , जानि परे सब कोय ॥ "
शेष अगले अंक में----

मंगलवार, 1 जुलाई 2008

श्री मानस रस मंजरी (५)

गताँक से आगे...
श्री द्शरथ जी सूर्यदेव से याचना करते है कि श्रीराम को आपकी प्रखर किरणें व शीत किरणें दुखदायी न हो । अपने श्रीराम का प्रकाश शत्रुओं के सामने सूर्य जैसे चमकना चाहिये । अगर आपका उदय अयोध्या में हो गया तो मेरा प्राणांत हो जायेगा । इस प्रकार विलाप करते हैं । रोते और माथा कूटते हैं -
" माथे हाथ मूँद दोऊ लोचन , तनु धरि सोच लागि जनु सोचन ॥ "
आपके उदय होते ही हमारी प्रजा का, अयोध्यापुरी का सूर्य वन को चला जायेगा । यहाँ पर श्रीराम के दर्शन नहीं होगें । हमारे नैन ज्योतिहीन हो जायेगें -
" गारी सकल कैकई देही ,नैन विहीन कीन्ह जग जेहि ॥ "
नेत्र तभी तक सार्थक है -
" सवैया :- नैन वही जो लखे हरि को । अरु बैन वही हरि नाम उचारे ॥
कान वही जो सुने प्रभु के गुन । दान वही जो भव पार उतारे ॥
नाम वही जो छाय रहे । सर नाम वही प्रभु तनु गारे ॥
ध्यान वही जो लगे निसिवासर । ग्यान वही जो विवेक विचारे ॥"

" नैनवंत रघुवरहि विलोकि । पाये जनम फल होहि विसोकि ॥"
श्री द्शरथ जी कहते हैं -
"धिग जीवन रघुवीर विहीना "
जब हमारे राम वन को चले जायेगें तो हमारा जीवन व्यर्थ हो जायेगा । इसलिये हे सूर्यदेव आपका बारह राशियों पर अधिकार है । बारह राशियों के सूर्य होते हैं । जिनका हर राशि का प्रभाव अलग-अलग होता है । जिस समय वृश्चिक राशि के सूर्य होते हैं, उस समय सूर्य बलवान हो जाते हैं । वृश्चिक राशि के सूर्य का सर्पदंस मुश्किल से ही ठीक होता है । बारह "र" से इसलिये भी प्रणाम करते हैं ,एक वर्ष में बारह महिने होते हैं । बारह राशियों के सूर्य बारह महिने रक्षा करें । बारह बजे दिन को श्रीरामजी प्रगट हुये थे ,इसलिये बारह बार "र " से याद दिलाते हैं कि,
"बारह कला राम अवतारा , सौलह कला कृष्ण सुखसारा ॥
बारह कला से अवतरित श्रीराम के दर्शन करने को हे सूर्यदेव आपने अयोध्या में एक महिने के लिये अखण्ड डेरा डाल दिया था -
"मध्य दिवस अति शीत न घामा , पावन काल लोक विश्रामा ॥
दोहा ;- मास दिवस का दिवस भा ,मर्म न जाने कोय ।
रथ समेत रवि थाकेऊ, निशा कवन विधि होय ॥ "
अयोध्या में श्रीराम जन्म महोत्सव देखकर आप अपना रथ चलाना भूल गये थे -
" कौतुक देख पतंग भुलाना ,मास दिवस तेहि जात न जाना ॥
यह रहस्य काहू न जाना , दिनमनि चले करत गुनगाना ॥ "
हे भास्कर , हे स्वामी ,जब आप आनंद के समय अयोध्या के साथी रहे तो ,आज संकट में भी साथ दीजिये !आप उदय मत होईये । आप अयोध्या के सुख में सुख ,दुख में दुख मानते हैं । तो अयोध्या को दुखी देखकर आपके ह्रदय में सूल जैसा दर्द होगा -
"अवध विलोकि सूल होयहि उर "
श्री द्शरथ जी ने विचार किया होगा अब श्रीराम का वनवास रोकना हमारे बस का नहीं रहा , देवताओं से प्रार्थना करुँ, तब काम बन जायेगा । क्योंकि हमने भी देवासुर संग्राम में देवताओं की तरफ से इन्द्रलोक जाकर दैत्यों से युध्द किया था । देवता भी हमारे सभी उत्सव में आते हैं । जैसे पुत्रेष्टि यज्ञ हमने किया तो देवता आये-
"भगति सहित मुनि आहुति दीन्हे ,प्रगटे अग्नि चरु कर लीन्हे ॥"
अग्निदेव प्रगट होकर मुनि वशिष्ठजी से कहते हैं -
"जो वशिष्ठ कछु ह्रदय विचारा ,सकल काजू भा सिध्द तुम्हारा ॥
यह हवि बाँटि देहु नृप जाई , यथा जोग जेहि भाग बनाई ॥"
इस प्रकार अग्निदेव समझा कर -
" तब अहृश्य पावक भये ,सकल सभहि समुझाइ ।
परमानंद मगन नृप , हर्ष न ह्रदय समाइ ॥"
श्रीद्शरथ जी सोचते हैं कि ,इस यज्ञ में देवता आये , अग्निदेव ने आकर श्री गुरुदेव को प्रसाद बाँटने का तरीका समझा कर गये । श्रीराम- सीता विवाह के समय भी सब देवता सूर्यनारायण सहित आये -
"सिव ब्रम्हादिक विबुध वरूथा , चढ़े विमानहि नाना यूथा ॥
प्रेम पुलक तन ह्रदय उछाहू ,चले विलोकन राम ब्याहू ॥ "
सब देवता जनकपुरी में इस समय जितने विवाह हुये उनको देखने आये और जनकपुरी की सजावट देखकर उनको अपने सुरलोक की शोभा लघु लगने लगी ।
"देखि जनकपुर सुर अनुरागे ,निज निज लोक सबहि लघु लागे ।"
जिस समय वहाँ के मंडप वितान देखें तो श्री मानसकार लिखते हैं -
"चितवहि चकित विचित्र विताना , रचना सकल अलौकिक नाना ॥ "
जिस समय नर-नारियों को देखने लगे तो देवता और देव-वधुओं को जो अपनी सुन्दरता का अभिमान था , चूर चूर हो गया -
" नगर नारि नर रूप निधाना ,सुघर सुधर्म सुशील सुजाना ।
तिनहि देख सब सुर नर नारि ,भये नखत जनु विधु उजयारि ॥ "
जनकपुर के नर-नारियों के सामने देवताओं की सुन्दरता फीकी पड़ गयी । जैसे चन्द्रमा के समक्ष तारागण तेजहीन लगते हैं । ब्रह्माजी ने सोचा जो यहाँ इतनी सुन्दर रचना की है इन्हौंने, तोरन पताका बनाये है , फल और फूलों से सजावट की है । वह तो वृक्षों से ही लिये हैं जो मैंने पृथ्वी पर बनाये हैं । मोर पपीहा कोयल तोता इत्यादि नाना प्रकार के पक्षी जो यहाँ सजावट के लिये रखे गये हैं । वे सब मेरी ही रचना है । ऐसा ब्रह्माजी को अभिमान हुआ । परन्तु जब छूकर देखा तो वहाँ पर श्रीब्रह्माजी की सृष्टि का कोई पेड़ , पौधा , पत्ता ,फल-फूल था ही नहीं ! वे सब मणि, माणिक, स्वर्ण, आदि पदार्थों से निर्मित थे । चतुर कारीगरों ने केला के वृक्ष बनाये वह सोने के हैं ।
" विधिहि वंदि जिन्ह कीन्ह अरंभा , विरचे कनक कदलि के खंभा ॥"
हरे मणियों के पत्ते और फूल बनाये गये थे ।
" हरित मणिन के पत्र फल , पदुमराग के फूल ।
रचना देखि विचित्र अति , मन विरंच कर भूल ॥"
वृक्षों पर जो बेला लताऐं दिख रही है , वह स्वर्ण मणियों से बनाई गयी है ।
" बेनु हरित मणिमय सब कीन्हे , सरल सपरन परहि नहिं चीन्हे ।
कनक कलित अहि बेलि बनाई, लखि नहि परई सपन सुहाई ॥
माणिक मरकत कुलिस पिरोजा , चीरि कोरि पचि रचे सरोजा ।"
माणिक आदि के कमलपुष्प आदि बनाये गये थे ।
"किये भृंग बहुरंग बिहंगा , गुँजहि कुँजहि पवन प्रसंगा ॥"
जब श्रीब्रह्माजी मोर,पपीहा,वृक्षों और लताओं को हाथ लगाया तो चौंक पड़े । अरे यह तो मेरी रचना नहीं है । जब नर -नारियों को देखा यह मेरी रचना होगी -
" सब नर नारि सुभग श्रुति संता , धर्मशील ज्ञानी गुणवंता ॥"
ब्रह्माजी ने अपनी सवारी रोककर कहने लगे - " क्या कोई दूसरा ब्रह्मा हो गया है जिसने यह रचना की है ?" देवता भी खड़े हो गये । जब उन्होंने देखा -
" सुर प्रतिमा खंभन गहि काढ़ि , मंगल द्रव्य लिये कर ठाड़ी ॥"
जब देवताओं ने अपने ही समान देवता खंभों में देखा । मंगल वस्तुएँ हाथों में लिये हैं । गणेशजी गणेश को , ब्रह्माजी ब्रह्मा को , कुबेरजी कुबेर को सब देवता अपने समान दूसरों को देख चकित हो खड़े रह गये । तब -
" विधिहि भयऊ आचरज विसेखी , निज करनी कछु कतऊ नहि देखी ॥"
उस समय देवाधिदेव महादेवजी ने सबको समझाया । आज का मानव समझाता नहीं ,बिगाड़ता है । भगवान सदाशिव ने कहा - गोस्वामीजी लिखते हैं -
"शिव समुझाये देव सब , जनि आचरज भुलाहू ।
हृदय विचारहु धीर धरि , सिय रघुवीर ब्याहू ॥
एहि विधि संभु सबहि समुझावा , पुनि आगे बर बसहि चलावा ॥ "
भोलेनाथ के समझाने पर सब देव प्रसन्न होकर आगे बढ़े ।
दशरथजी सोचते हैं कि देवता हमारे यज्ञ में आये , रामजी के विवाह में आये । सुख में साथ दिया तो दुख की घड़ी में भी सहायता करेगें । रामजी को वनवास नहीं जाने देगें, ऐसा कुछ उपाय करेगें ।
" राय राम राखन हित लागी , बहुत उपाय किये छल त्यागी ।"
विधि मनाव राऊ मन माही , जेहि रघुनाथ न कानन जाही ॥"
श्रीदशरथजी ब्रह्माजी को मनाते हैं कि , आपकी कृपा से मेरे राम को जंगल न जाना पड़े -
" सुमर महेशहि कहहि निहोरी , विनती सुनहु सदाशिव मोरी ।
आशुतोष तुम अवढर दानी । आरति हरहु दीन जनु जानी ॥ "
दोहा :- तुम प्रेरक सबके हृदय , सो मति रामहि देहु ।
वचनु मोर तजि रहहिं घर , परिहरि सीलु सनेहु ॥"
श्री दशरथजी शंकरजी से प्रार्थना करते हैं कि श्रीराम मेरी आज्ञा को न माने , मेरी बात न माने ! आज हम देवताओं को मनाते हैं कि हमारे पुत्र हमारी बात मानें । यह हमारे चरित्र की कमी है । तो -
" राय राम राखन हित लागी , बहुत उपाय किये छल त्यागी ।"
परन्तु कोई उपाय ने काम नही दिया । कोई देवताओं ने इनकी सहायता नहीं की । क्योंकि श्रीराम वनवास देव-इच्छा से देव- सम्मति से ही हो रहा था । इस कार्य में ब्रह्मा एवं ब्रह्माणी जी सहित सभी देवता लगे हुये थे कि , रामजी का वनवास शीघ्र हो । किसी प्रकार रूक नाजायें । स्वार्थी देवता दशरथ जी की प्रार्थना क्यों सुनेगें ?
शेष अगले अंक में ...

शनिवार, 28 जून 2008

श्री मानस रस मंजरी (४)

[ गतांक से आगे ]
रघुवंशी सूर्यवंश है । दशरथ जी सूर्यवंशी है ,सूर्यवंश में अवतार लिये हैं । सूर्यनारायण में बारह कला हैं
और तीन कला चन्द्र्मा में है , एक कला अग्नि में है । श्री रामचरित मानस में आया है -
"वन्दऊ नाम राम रघुवर को ,हेतु कृशानु भानु हिमकर को ।"
श्री दशरथ जी सूर्य भगवान को कहते हैं कि, हे सूर्यदेव आप तीनों लोकों का अंधकार दूर करते हो,आपके कुल को कलंक का टीका लगाने वाला व्यर्थ ही श्रीराम का पिता कहलाया । मुझे एकबार क्षमा कर दें।जो में आपसे याचना करना चाहता हुँ वह आशीर्वाद मुझे देने की दया करें,कि मैं किसी को अपना काला मुँह न दिखा सकुँ । क्या माँगते है कि-
"उदय करहु जनि रवि रघुकुल गुर , अवध विलोकि सूल होयहि उर ।
ह्रदय मनाव भोर जनि होई , रामहि जाय कहे जनि कोई ॥ "
हे ,भास्कर आप भारत में उदय ही न हों ,आप अयोध्या में उदय ही न हों !श्री दशरथ जी चाहते है अवध में हमेशा रात ही रहे । जिससे मेरा राम जंगल को तपस्वी बनकर न जाये । नृप कहते हैं कि मुझे दिन नहीं चाहिये -
"उदय करहु जनि रवि रघुकुल गुर , अवध विलोकि सूल होयहि उर "
मुझे प्रकाश नहीं चाहिये , मुझे तो मेरा राम ही चाहिये । मेरी अयोध्यापुरी को,मेरे परिवार को , मेरी प्रजा को राम ही चाहिये , सबेरा नहीं । श्री दशरथ जी को , अयोध्यावासियों को, माताओं को राम ही सूर्य है । पूज्यपाद गोस्वामी जी भी श्रीराम राघव को सूर्य लिखते हैं-
दोहा :- "उदित उदय गिरि मंच पर ,रघुवर बाल पतंग ।
बिकसे संत सरोज सब ,हरषे लोचन भृंग ॥"
जिस समय जनक जी के यहाँ जिस मंच पर भगवान सदाशिव का धनुष भंग करने को गुरु जी की आज्ञा से पहुँचे तो गोस्वामी जी ने श्रीराम को बाल पतंग लिख दिया । उदय के सूर्य ज्यादा तेज नहीं होते, कोई भी बिना चकाचौंध के बालसूर्य को देख सकते हैं । वही सूर्य जब तरुण अवस्था में बारह बजे पर आते हैं,तो देखना कठिन हो जाता है । श्रीराम यहाँ जनकपुरी में ,अयोध्यापुरी में बालसूर्य हैं , जबकि परशुरामजी बारह बजे के सूर्य हैं । देखिये जिस समय शिव धनुष भंग होता है तो आवाज को सुनकर श्री परशुरामजी आते हैं । यहाँ मानसकार लिखते हैं-
"तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा, आयहु भृगुकुल कमल पतंगा ॥"
श्री परशुरामजी को पतंगा , श्रीरामजी को बाल पतंग । आईये, अपने प्रसंग पर - श्री दशरथ जी सोचते हैं कि ,मेरे कुल को प्रकाशित करने वाले श्रीराम बाल सूर्य के समान अयोध्या में रहे तो हमको रात भी अच्छी है क्योंकि ,-
"एहि जग जामिनी जागहि जोगी, परमार्थी प्रपंच वियोगी ॥"
राजा चाहते हैं कि रात रहे ,श्रीहनुमानजी चाहते हैं कि रात जल्दी से हो जाये तो मैं लंका में शीघ्रता से प्रवेश करुँ -
"पुर रखवारे देखि बहु , कपि मन कीन्ह विचार ।
अति लघु रुप धरौं ,निशि नगर करहु पैसार ॥"
लंका में श्रीरामजी नर-नाटक करते हुये कहते हैं कि सूर्य उदय न हो तो अच्छा है । मेरे भाई लक्ष्मन का कोई अहित नहीं होगा । लंका में श्रीरामजी रात चाहते हैं, श्रीहनुमानजी रात चाहते हैं , अयोध्या में श्री दशरथ जी भी रात्रि चाहते हैं -
""उदय करहु जनि रवि रघुकुल गुर , अवध विलोकि सूल होयहि उर "
रात में योगी जन साधना करते हैं । श्री गीताजी अध्याय 2 श्लोक 69 मे
"या निशा सर्व भूतानां तस्यां जाग्रति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भुतानि सा निशा पश्यतो मुने: ॥"
सम्पूर्ण प्राणियों को जो रात्रि के समान है , उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानंद की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ जोगी जागता है । और जिस नाशवान सांसरिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं ,परमात्मा के तत्व को जानने वाले मुनि के लिये वह रात्रि के समान है । श्री हनुमान जी ने भी विभीषण जी को रात्रि में राम-नाम लेने पर ही पहचाना था । निशाचर भी रात्रि में जागते हैं । पर वे काम,क्रोध,लोभ ,मोह की पूर्ति के लिये जागते हैं । जो रात में सोते हैं और रामजी के बनना चाह्ते है सो गलत है । अयोध्यावासी श्रीरामजी के पीछे-पीछे जंगल को जाते हैं और कहते हैं -
"अवध तहाँ जहँ राम निवासू ,तँहई दिवस जँह भानु प्रकासु ॥"
कहते है ज़हाँ हमारे राम जिस जंगल में होगें वही पहाड़ हमारे लिये अयोध्या का सुख़ देगा परन्तु जब यहा सब भक्त जन तमसा नदी के किनारे गहरी नींद में सो गए तो श्री रामचन्द्रजी ने बताया कि रात मे सोने वाले को हमेशा हमेशा को प्राप्त नही हुँ सोते छोड चले गये परन्तु जो जाग रहे थे लक्ष्मण जी सुमन्तजी उनको साथ लेकर ही गये|इस लिये रात्रि भक्तों की साधना के लिये होती है-श्री दशरथ जी कहते है कि रात ही रात रहे|
"ह्रदय मनाव भोरु जनि होई,रामहि जाय कहे जनि कोई ॥"
श्री द्शरथ जी सूर्यदेव से याचना करते है क्योंकि बारह कला सूर्य में होने के कारण बारह "र" से प्रार्थना कर ,प्रत्येक कला को "र" समर्पण करते हैं । एक "र"को हमेशा अपने मन में रखते हैं । और क्या कहते है - बारह महिने होते हैं । आप बारह कला से रक्षा करने की कृपा करें !बारह महिने में छह ॠतु होती है ।
ग्रीष्म,वर्षा,शरद,शिशिर,हेमन्त और बसन्त । छह ॠतु हेतु छह बार नाम लेकर श्रीराम की रक्षा की प्रार्थना करते हैं । श्रीराम को आपकी शरण में सौंपकर-
" राम राम कहि,राम कहि , राम राम कहि राम ।
तनु परिहर रघुवर विरह , राऊ गये सुरधाम ॥ "
शेष अगले अंक में

बुधवार, 25 जून 2008

श्री मानस रस मंजरी (३)

[ गतांक से आगे ]
श्री दशरथ जी रोते हैं ,विलाप करते हैं । प्राणघातक वेदना का अनुभव करते हैं ।
" "हा रघुनंदन प्राणपिरीते, तुम्हबिन जियत बहुत दिन बीते ।
हा जानकी लखन हा रघुवर ,हा पितु हित चातक जलधर ॥"

श्री दशरथ जी प्रिय पुत्र श्रीराम जी की याद करके रोते हैं ।"हा" शब्द विशेष दुखी होने पर ही मुख से निकलता है । सीताहरण के समय सीता जी भी "हा" कहकर विलाप करती है ।
"हा जग एक वीर रघुराया , केहि अपराध बिसारेहु दाया ॥"
सीता जी अपना अपराध पूछती है । अपराध तो था ही -
"सीता परम रुचिर मृग देखा ,अंग अंग सु मनोहर वेषा ॥
सत्यसंध प्रभु वध कर एहि ,आनहू चर्म कहत वैदेही ॥"
पत्नि का धर्म पति को आज्ञा देने का नहीं है । पर सीता जी ने मृगचर्म लाने को अपने पति श्रीराम से कह दिया । यह अपराध था । इस तरह तीन बार "हा" कहकर जानकी जी रोती है ।
"आरतिहरण शरण सुखदायक ,हा रघुकुल सरोज दिननायक ।
हा लक्ष्मण तुम्हार नहीं दोषा ,सो फल पायहू कीन्हेऊ रोषा ॥"
श्री सीता जी स्वंय स्वीकार करती है अपनी गलती को , अपने अपराध को, कि हमने एक तो प्रभु को मृग मारने की आज्ञा दी । दूसरी गलती लक्ष्मण जी पर क्रोध करके माया मृग की आवाज सुन प्रिय देवर लखनलाल को अपने भ्राता श्रीराम के पास वन में भेज दिया ।
तो जो कोई भक्त भगवान को "हा" कहकर रोता है ,उसको भगवान भी "हा" कहकर रोते हैं । सीता जी के लिये रोते हैं -
"हा सुख खानि जानकी सीता ,रुपशील व्रत नेम पुनीता ॥"
भगवान का भक्त से कहना है-
"जो तु आवै एक पग , मैं धावौ पग साठ ।
जो तु सुखे काठ सम , तो मैं लोहे की लाठ ॥"
आईये अपने प्रसंग पर , पिता अपने पुत्र श्रीराम जी के लिये, लक्ष्मण जी के लिये, पुत्रवधु के लिये " हा"कहकर रोते हैं ।
"हा रघुनंदन प्राणपिरीते, तुम्हबिन जियत बहुत दिन बीते ।
हा जानकी लखन हा रघुवर ,हा पितु हित चातक जलधर ॥
दोहा - राम राम कहि,राम कहि , राम राम कहि राम ।
तनु परिहर रघुवर विरह , राऊ गये सुरधाम ॥ "
इन दो चौपाईऔर एक दोहा में 12 (बारह) "ह" आते हैं । जिनका गूढ़ार्थ निकलता है । 10(दस) इन्द्रियाँ होती है । 5(पाँच) कर्मेन्द्रिय-मुख,हाथ,पैर,गुदा, जननेन्द्रिय और पाँच ज्ञानेन्द्रिय-नेत्र,कान,नाक,जीभ और त्वचा । दशरथ जी दसों इन्द्रियों से और मन बुध्दि से रोये, ये बारह हो गये । इसलिये बारह "ह"आये। दशरथ जी रोते हैं-किसी का मत है कि त्रेतायुग की उम्र -
"बारह लाख छियान्वे हजारा,त्रेता रहे सुखी संसारा॥"
बारह लाख की है।दशरथ जी रोते हैं कहते हैं मैंने त्रेतायुग को कलंकित कर दिया।द्वापर और कलयुग के लोग कहेगें कि त्रेता में एक राजा युग को कलंक लगाने वाला दशरथ नाम का हुआ था,जिसने अपने पुत्र को राजतिलक करने,राजा बनाने को कहकर सबेरे देश से,नगर से,गाँव से और पुर से चौदह वर्ष को बाहर निकाल दिया। इसलिये बारह"ह"का उच्चारण आया है।दूसरा भाव पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदासजी ने जब यह प्रसंग लिखने को अपनी लेखनी उठाई और प्रभु का स्मरण किया,तब- "सुमरत राम रुप उर आवा,परमानंद अमित सुख पावा ॥"
तब गोस्वामीजी की हृष्टि कैसी हो गई-
"सुझहि रामचरित मणि मानिक, गुप्त प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ॥"
जब गुप्त प्रगट सब प्रकार के चरित्र दिखने लगे, तब इनको यह भी दिखा कि लक्ष्मणजी जंगल में बारह वर्ष का अखण्ड व्रत करेगें । क्या व्रत करेगें ? बारह वर्ष सोयेगें नहीं ! कितना कठिन व्रत है ? आज किसी को आठ दिन बिल्कुल नींद ना आये तो दिमाग खराब हो जाये । डाक्टर साहब को ढुंढना पड़ेगा । और इतना ही नहीं लखनलालजी ने बारह वर्ष निराम्बु(निर्जल) व्रत किया । इस बात को याद कर तुलसी बाबा के मन में आया होगा राजकुमार होकर इतना कठिन व्रत किया तो बारह बार "ह" लिख दिया ।
"हा रघुनंदन प्राणपिरीते, तुम्हबिन जियत बहुत दिन बीते ।
हा जानकी लखन हा रघुवर ,हा पितु हित चातक जलधर ॥
दोहा - राम राम कहि,राम कहि , राम राम कहि राम ।
तनु परिहर रघुवर विरह , राऊ गये सुरधाम ॥ "
दस इन्द्रिय+अन्तःकर्ण चतुष्ट्यः (मन बुध्दि चित्त अंहकार)ये चौदह हो गये और पाँच प्राण (प्राण,अपान समान,उदान,व्यान ) इन उन्नीसों से "र" बोलकर उन्नीसों को रामजी को समर्पण कर प्राण छोड़ दिये । अपनी वाणी को हमेशा के लिये श्रीराम जी को सौंप दी। इसलिये -

"दोहा - राम राम कहि,राम कहि , राम राम कहि राम ।
तनु परिहर रघुवर विरह , राऊ गये सुरधाम ॥ "
इस दोहे में तेरह "र" आते हैं । चौदह भुवन होते हैं । सब में राम ध्वनि होना चाहिये, इसलिये भी तेरह भुवन में "रकार" भेजकर चौदहवें में आप स्वंय जाते हैं ।
"राऊ गये सुरधाम"
नारद मुनि जी भी यही वरदान माँगते हैं कि ,
"राम सकल नामन ते अधिका ,होऊ नाथ अघ खग गन वधिका ॥"
दोहा :- राका रजनी भगति तव ,राम नाम सोई सोम ।
अपर नाम उडगन विमल , बसहि भक्त उर व्योम ॥"
अर्थ :- क्वाँर के शरद पूर्णिमा की रात्रि को जो चन्द्रमा निकलता है , कहते हैं कि उस चन्द्र से अमृत बरसता है । सो वह रात आपकी भक्ति हो ,रामनाम उस रात्रि के चन्द्र का अमृत हो और आपके जो अनगिनत नाम हैं उस रात्रि के तारागणों के समान भक्तों के आकाशरुपी ह्रदय में हमेशा निवास करे । नारदजी की मनोकामना है कि राका रजनी ही सब भक्तों के ह्र्दय में चौदह भुवनों में हमेशा निवास करे । दशरथ जी भी तेरह भुवनों में "रकार" भेजकर -"राऊ गये सुरधाम"
" दोहा - राम राम कहि,राम कहि , राम राम कहि राम ।
तनु परिहर रघुवर विरह , राऊ गये सुरधाम ॥ "
यह दोहा "रा" अक्षर से शुरु होकर "म" अक्षर पर समाप्त किया है । "रा" और "म" के बीच में अपनी जीवन-लीला समाप्त करते हैं ।
"दोहा :- तुलसी रा के कहत ही , निकसत पाप पहार ।
फिर आवन पावत नहिं , देत मकार किवार ॥ "
इसलिये 'रा" और "म" के मध्य "राऊ गये सुरधाम"
[ शेष अगले अंक में ]

शनिवार, 21 जून 2008

श्री मानस रस मंजरी (२)

सब कुछ सीखा जगत में,लेन देन व्यवहार ।
मरण न सीखा आपने ,वृथा जन्म संसार ॥
श्रीमद गीता जी के अध्याय2,श्लोक 27 में भगवान श्री कृष्ण जी कहते हैं:-
"जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु ध्रुवं जन्म मृतस्य च "
हे अर्जुन, जिसने जन्म लिया है वह निश्चय ही मरेगा,जो मरा है, वह निश्चय ही जन्म लेगा । इसलिये अपने चरित्र को संभालना चाहिये ।
दोहा:- जब तु आया जगत में, जग हर्षे तु रोय ।
ऐसी करनी कर चलो , तु हर्षे जग रोय ॥
जीवन की चिन्ता नहीं ,मौत भजो दिनरात ।
तन मन सब को त्याग कर , करै राम की बात ॥
सतयुग से युग कली लग , जन्मे मरे अनेक ।
जो चिन्ता करे मृत्यु की , "फूलपुरी" कोई एक ॥
रामचरित मानस मँह , प्रगटे मरे अनेक ।
दशरथ सम जो तनु तजो,"फूलपुरी" पद टेक ॥
जो पुज्य श्री दशरथ जी के समान छ:बार श्रीराम का शुभ नाम लेकर और छ:बार केवल "र" बोलकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर देते हैं:-
"हा रघुनंदन प्राणपिरीते, तुम्हबिन जियत बहुत दिन बीते ।
हा जानकी लखन हा रघुवर ,हा पितु हित चातक जलधर ॥
दोहा - राम राम कहि,राम कहि , राम राम कहि राम ।
तनु परिहर रघुवर विरह , राऊ गये सुरधाम ॥ "
ऐसे परम पुज्य श्री दशरथ जी के चरणकमलों में "फूलपुरी" अनंत प्रणाम करते हुये उनके प्राणांत के समय की लीला श्री रामचरित मानस से अपने मन की शान्ति हेतु लिखना चाहता हुँ ।
" सो मोसन कहि जात न कैसे , शाक वनिक मनि गुन गन जैसे ॥"
कोई रास्ता ही नही मिल रहा ,जैसे सब्जी भाजी बेचने वालों को मणि के गुण और मूल्य का कोई अता-पता नही लगता । फिर भी अपने विवेक से रामचरित्र मानस पर अपने भाव व्यक्त करता हुँ ।
जिस समय श्री रामजी का वनवास होता है तब श्री दशरथ जी कहते हैं-
"राम रूप गुन शील सुभाऊ,सुमर सुमर उर सोचत राऊ ।
राज सुनाई दीन्ह वनवासु, सुनि मन भयऊ न हरष हरासु ॥
सो सुत बिछुरत गये न प्राना,को पापी बड़ मोहि समाना ।
श्री दशरथ जी विलाप करते हैं और कहते हैं कि धन्य है उन श्रीराम को जिनके लिये हमने श्री गुरुजी द्वारा कहला दिया कि कल सबेरे आपका राजतिलक होगा । इसलिये हे राम -
"राम करहु सब संयम आजु , जो विधि कुशल निवाहे काजु ।"
और कल को वनवास दे दिया । तो भी मेरे राम को राजतिलक सुनकर हर्ष नहीं हुआ और वनवास सुनकर दुख भी नही हुआ ।
"राज सुनाय दीन्हि वनवासु , सुनि मन भयऊ न हरष हरासु ॥
सो सुत बिछुरत गये न प्राणा, को पापी बड़ मोहि समाना ॥
दोहा :- सखा राम सीय लखन जहँ , तहाँ मोहि पहुचाव ।
नाहित चाहत चलन अब, प्राण कहहु सत भाव ॥
भावार्थ :- श्री दशरथ जी रो रहे हैं और कहते है कि हाय राम,हाय सीते, हाय श्री राम का साथ देने वाले लक्ष्मण, मुझ जैसे पापी के तुम जैसे रामभक्त पुत्र होना मेरे लिये गौरव की बात है । मैं श्री भोलेनाथ शंकर जी से प्रार्थना करता हुँ कि मेरे राम,पुत्रवधु जानकी जी, मेरी प्रिया सुमित्रा के नंदन लखन के पैरों में काँटा भी न लगे ।मेरी बात रखने के लिये जंगल का कष्ट सहते हुये पैरों में जूते भी नहीं नंगे पाँव घूम रहे हैं ।
"राम लखन सीय बिनु पगु पनहि , धरि मुनि वेष फिरहि वन वनहि ॥
दोहा :- अजिन वसन फल असन महि, सयन डास कुश पात ।
बसि तरुतर नित सहत हिम , आतप वर्षा वात ॥"
मेरे ही कारण मेरे सपूत वनों में भटक रहे हैं । (सपूत होते हैं,पूत होते हैं और कपूत होते हैं।)
"वृध्दों की सेवा करै, गृहै शास्त्र की बात ।
गुण सपूत के जानिये , भजै ईश दिनरात ॥
सेवा करे पितु मातु की , मन अनीति नहि भाय ।
पूत कहावत जगत में , सबहिं मिले हरषाय ॥"
सपूत वह होते हैं जो बगैर कहे माता-पिता ,गुरु की सेवा करते है । जैसे राम,लक्ष्मण,भरत,शत्रुघ्न । पूत वह है जो कहने पर सेवा करते है ।
"शास्त्रों की निंदा करै,सयानों को ठुकराय ।
ईश्वर को माने नहीं, सो कपूत कहलाय ॥"
कपूत वह होते हैं जो स्त्री के कहने पर चलते हैं ।माता पिता को ठुकरा देते है । यहाँ तक की भोजन तो क्या प्यास बुझाने के लिये पानी को भी नहीं पूछते ।
जैसे रावण,कुंभकर्ण राक्षस आदि ।

बुधवार, 18 जून 2008

श्री मानस रस मंजरी

जय श्री राम
वन्दनीय पाठकवृन्द,
आपकी सेवा में निवेदन करना चाहता हुँ कि मैं,अपने भगवदस्वरूप साक्षात कृपामुर्ति गुरुजी की एक अनुपम रचना "श्री मानस रस मंजरी" आप गुणीजनों के समक्ष प्रस्तुत करना चाहता हुँ । मेरे गुरुजी अत्यंत सरल व सौम्य स्वभाव के हैं । वे अपने बारे में कहते हैं कि वे कभी विद्याध्ययन हेतु शाला नहीं गये। क्योंकि आर्थिक कारणों से संभव न हो सका । परन्तु उनकी विद्धता,ज्ञान,को महसूस कर इस कथन पर सहसा विश्वास नहीं होता । वे बताते हैं कि,उनका परिवार शिक्षा का ही विरोधी था । उन्होंने अपने उच्च संकल्प के बल पर ही अत्यंत कठिनता से अक्षरज्ञान प्राप्त किया और श्री रामचरित मानस का अध्ध्यन किया । यहाँ-वहाँ सत्संग कर ज्ञान अर्जन किया । अब आप उनकी इस रचना का आंनद प्राप्त करें ।
"श्री गणेशाय नम:" "श्री शारदायै नम:"
"ईश वन्दना"
सवैया-: आदि गणेश गणों के हो नायक , तुव सेये सब आश पुरी है ।
ब्याह समय शिव पार्वती , तुव पूजे तवै उन गाँठ जुरि है …
भुमिसुता पूजा जब करि , तब राम ने सीय तुरन्त बरी है ।
दृष्टि दया की करो मम ऊपर, काज सभी सुभ "फूलपुरी" है ॥
कवित्त:- माता शारदा श्वेताम्बर लसत अंग ,श्वेत वीणा कर में लय स्वर झकारती ।
श्वेत पुष्प माला मातु कंठ में सुशोभित है ,मोतिन की माला कर कंज में सुहावती ॥
श्वेत कंज आसन पर शोभित हो दयामयी, श्वेत कंज हाथ लिये दास दुख जारती ।
श्वेत हंस वाहन लय दौरु,मत विलम्ब करु, "फूलपुरी" जिव्हा पर आसन करु भारती ॥

सकल भूल ऐही मह भरी,बुध्दजन लेहि सुधार ।
"फूलपुरी" ने लिखी यह ,जो मति मंद गवार ॥
जन्म गुसाँई घर भयो , पढ़ो लिखो कछु नाय ।
शाला एक दिन नहिं गयो , कतहुँ पढ़ो नहि जाय ॥
दया करी हनुमान जी , एक निसी कह रहे माँग ।
मैं मूरख जानौ नहीं ,दरशन से बुधि जाग ॥
मन बुधि वाणी सुचिकरन , बुधजन शीश नवाय ।
रामकथा संग्रह कियो , शिशु कछु जानत नाय ॥
छमा करहुँ सज्जन सकल ,जानि सकल बुधि हीन।
भूल सुधारहु आपही , बुधजन परम प्रवीन ॥

सवैया:- श्री रामकथा लिखने के लिये, मन बारहिबार हुलास भरे ।
बल बुध्दि न रंचक है,उर में, नहि चैन परे घबरात फिरे ॥
मति नीच है ऊँच चहे कहवों, कर कैसे के कलम दवात धरै ।
रंचक राम कृपा जबहिं, तब रामकथा सब सूझ परै ॥
भावार्थ:- श्री रामकथा लिखने को मन बार बार कहता है बुध्दि कहती है कि मूर्ख एक दिन भी तो पाठशाला पढ़ने नही गया । कैसे श्री रामकथा लिख पायेगा? तो ह्रदय से आवाज आती है - " मूकं करोति वाचालं,पंगु लंघयते गिरिं । "
अरे ! भगवान की कृपामात्र से गूंगे अधिक बोलने वाले हो जाते हैं, पैरों से लंगड़े दुर्गम पहाड़ पर चढ़ जाते हैं ।
यथा:- "नही मेघ के कंठ,गति, नही अरुण के पाँव ।
वास करें आकाश में, रवि रथ चढ़ के धाव ॥"
बगैर कंठ वाले मेघ के गरजने से पृथ्वी भी दहल जाती है । गरुड़ के भाई अरुण जिनके पैर नहीं है फिर भी वे सूर्य भगवान के रथ का संचालन आकाश मार्ग पर करते रहते हैं । अर्थात जिस पर श्री हरि की कृपा हो जाये उसके सभी कार्य सुगम हो जाते हैं। किसी को सुनाने की क्या आवश्यकता है । चार वेद ,छह शास्त्र , अठारह पुराण भक्तों के लिये भरे पड़े हैं । तू तो अपने मन और वाणी को पवित्र करने के लिये भक्तों का या भगवान का चरित्र स्मरण कर । परन्तु बिना लिखे कैसे स्मरण करेगा ? इसलिये अपने टूटे फूटे शब्दों को कलम से जैसा बने कागज पर लिख । जिससे तू और तेरे जैसे अनेक भूले भटके इस छोटा अ बड़ा आ रुपी पुस्तक को पढ़कर बड़ी पुस्तक रुपी संतोंके पास जाकर सत्संग प्राप्त करके म्रुत्यु लोक से छुटकारा पाने का मार्ग प्राप्त कर सकेगें ।
दोहा:- पवनपूत सम पूत नही, जो अंजनि के लाल ।
दया दृष्टि जेहि पर करे , तेहि डरपत है काल ॥
रसिया रामकथा के ,कथा कहावनु हेतु ।
"फूलपुरी" के ह्रदय में, आय करहु तुम सेतु ॥

"राम अनंत अनंत गुण , अमित कथा विस्तार ।
सुनि आश्चर्य न मानहिं , जिनके विमल विचार ॥
राम अमित गुणसागर , थाह कि पावई कोय ।
संतन सन जस कछु सुनेऊ, तुम्हहिं सुनायऊ सोय ॥"
मृत्युलोक में आय के , मृत्युहि भूले आप ।
पूर्व जन्म के जानिये , उदय भये सब पाप ॥
"दशरथ जी की मृत्यु का रहस्य "

जैसे कि आज का मानव मृत्यु लोक में आकर अपनी मृत्यु को
ही भूल गया है । जैसे :-
"जीवन संवत पंच दशा । कल्पांत न नास गुमान असा ॥ "
मृत्यु लोक में पाँच या दस वर्ष ही जीना है पर मानव समझता है कि मेरा कल्पों तक नाश नही है । ऐसा अभिमान करता है । आइये रामचरित मानस से जीना और मरना सीखें । श्री दशरथ जी के अंत समय की एक चौपाई और एक दोहे पर विचार करें । प्रत्येक मानव संसार में आकर सब कुछ सीखता है । पर मरना नही सीखता जो जरुरी है।

शुक्रवार, 13 जून 2008

शनैश्चर व्रत कथा

जय श्रीराम
शनैश्चर व्रत कथा
यह कथा भविष्य पुराण से ली गई है । एक बार त्रेतायुग में भयंकर अकाल पड़ा । सम्पूर्ण जगत कष्ट से त्राहि-त्राहि कर रहा था । उस घोर अकाल में कौशिक मुनि अपनी पत्नि एवं पुत्रों के साथ, अपना निवास-स्थान छोड़कर जीवन यापन हेतु, दुसरे प्रदेश में निवास करने निकल पड़े । यात्रा के बीच में परिवार का भरण पोषण अत्यधिक कठिन होने के कारण बड़े कष्ट से अपने एक बालक को मार्ग में ही छोड़ दिया ! वह बालक भूख प्यास से व्याकुल हो भटकते हुए एक पीपल के पेड़ के पास पहुँचा । वहाँ समीप ही बावड़ी थी । बालक ने पीपल के फलों को खाकर ठंडा जल पी लिया । उसे बहुत राहत मिली । वह अब वहीं रहकर प्रतिदिन पीपल के फलों का आहार कर भगवान का ध्यान करता । दैवयोग से एक दिन नारद जी का आगमन हुआ । बालक ने प्रणाम किया,आदरभाव से सेवा की । दयालु नारद जी ने उसकी अवस्था,विनय और नम्रता से बहुत ही प्रसन्न होकर उन्होंने बालक को संस्कारित कर वेद की शिक्षा दी तथा साथ ही द्वादशाक्षर वैष्णव मंत्र(ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) का उपदेश दिया ।
अब वह बालक प्रतिदिन भगवानविष्णु का ध्यान और मन्त्र का जाप करने लगा । नारदजी भी उसी के पास रहने लगे । भगवानविष्णु बालक की तपस्या से प्रसन्न होकर गरुड़ पर सवार हो प्रगट हुए । देवर्षि नारद के वचन से बालक ने पहचान लिया ,तब उसने भगवान से परम भक्ति का वरदान माँगा । श्री हरि भगवान ने प्रसन्न होकर बालक को ज्ञानी और योगी का होने का आशीर्वाद दिया । भगवान के वरदान से वह बालक महाज्ञानी महर्षि हो गया ।
एक दिन बालक ने अपने गुरु नारदजी से पूछा-: हे तात ,यह किस कर्म का फल है कि,जिसने मेरे माता-पिता को मुझसे मेरे बचपन में अलग किया, और मुझे अत्यंत दारुण दुखः झेलने पड़े । इसका रहस्य बताने की दया करें प्रभो !
तब देवर्षि नारद ने आकाश की ओर देखते हुए कहा-:बालक, इस शनैश्चर ग्रह के कारण ही तुम्हें यह दुखः झेलने पड़े । और यह सम्पूर्ण जगत भी उसके मंदगति से चलने के कारण घोर कष्ट पा रहा है । देखो,वह अपनी शक्ति पर अभिभानी होकर आकाश में कितना चमक रहा है ।
यह सुन बालक क्रोध से भर उठा । उसने अपनी तपशक्ति से शनैश्चर को आकाश से भुमि पर पटक दिया । जिससे शनैश्चर के पैर टूट गये । नारदजी अभिमानी शनैश्चर को दंड मिलने पर ,प्रसन्न होकर ब्रम्हा, रुद्र,इन्द्र आदि सभी देवताओं को बुलाकर उनकी दुर्गति दिखाई ।
यह देख ब्रम्हाजी ने बालक से कहा-: हे तपोनिष्ठ बालक,तुमने पीपल के फल खाकर कठिन तप किया है । अत:तुम्हारा नाम आज से "पिप्पलाद"होगा । जो कोई भी शनिवार को तुम्हारा भक्ति-भाव से पूजन करेगें,अथवा "पिप्पलाद" इस नाम का स्मरण करेगें,उन्हें सात जन्मों तक शनि की पीड़ा सहन नहीं करनी पड़ेगी । और वे पुत्र पौत्र का सुख भोग करेगें । अब तुम पुन:शनैश्चर को आकाश में स्थापित कर दो, क्योंकि इनका कोई अपराध नहीं है । ग्रहों की पीड़ा से बचने हेतु नैवेद्य निवेदन, हवन,नमस्कार आदि करना चाहिये । ग्रहों का अनादर नही करना चाहिये । पूजित होने पर ये शान्ति प्रदान करते हैं ।
शनि की ग्रहजन्य पीड़ा से निवृत्ति हेतु शनिवार को स्वंय तैलाभ्यंग कर ब्राह्मणों को भी अभ्यंग हेतु तैल-दान करना चाहिये । शनि की लौह-प्रतिमा बनाकर तैलयुक्त लौह-पात्र में रखकर एक वर्ष तक प्रति शनिवार को पूजन करने के बाद कृष्ण पुष्प - दो कृष्ण वस्त्र- कसार-तिल-भात आदि से उनका पूजन कर काली गाय, काला कम्बल, तिल का तेल और दक्षिणा सहित सब पदार्थ ब्राम्हण को प्रदान करना चाहिये । पूजन आदि में शनि के इस मन्त्र का प्रयोग करना चाहिये
शं नो देवीरभिष्ट्य आपो भवन्तु पीतये । शं योरभि स्त्रवन्तु न: ।।
राज्य नष्ट हुए नल को शनिदेव ने स्वप्न में अपने एक मन्त्र का उपदेश दिया था । उसी नाम-स्तुति से नल को पुन:राज्य उपलब्ध हुआ था ।उस स्तुति से शनिदेव की प्रार्थना करनी चाहिये । सर्वकामप्रद वह स्तुति इस प्रकार है -:
क्रोडं नीलांजनप्रख्यं नीलवर्णंसमस्त्रजम
छायामार्तण्डसम्भूतं नमस्यामि शनैश्चरम
नमोअर्कपुत्राय शनैश्चराय
नीहारवर्णान्जनमेचकाय
श्रुत्वा रहस्यं भवकामदश्च
फलप्रदो मे भव सुर्यपुत्र
नमोस्तु प्रेतराजाय कृष्णदेहाय वै नम:
शनैश्चराय क्रूराय शुद्ध्बुद्धिप्रदायिने
य एभिर्नामभि: स्तौति तस्य तुष्टौ भवाम्यहम
मदीयं तु भयं तस्य स्वप्नेअपि न भविष्यति
जो भी व्यक्ति प्रत्येक शनिवार को एक वर्ष तक इस व्रत को करता है उसे कभी शनि की पीड़ा नही सताती । यह कहकर ब्रम्हाजी सभी देवताओ के साथ परमधाम को चले गये और पिप्पलाद मुनि ने ब्रम्हाजी की आज्ञानुसार शनिदेवजी को पुन: आकाश मे प्रतिष्टित कर दिया । महामुनि पिप्पलादजी ने शनिदेव की इस प्रकार प्रार्थना की -:
कोणस्थ: बभ्रु: कृष्णोरौद्रौऽन्तको यम: ।
सौरि: शनैश्चरो मन्द: प्रीयतां मे ग्रहोत्तम ॥
जो व्यक्ति शनैश्चरोपाख्यान को भक्तिपूवर्क सुनता है तथा । शनि की लौह-प्रतिमा बनाकर तैलयुक्त लौह-पात्र में रखकर ब्राम्हण को दक्षिणा सहित दान देता है- उसको कभी शनि से भय नही होता । उस पर सर्वदा शनिदेव प्रसन्न रहते है ।
जय श्री राम

बुधवार, 11 जून 2008

श्री तुलसी महिमा

जय श्री राम
भगवान श्री हरि शंखचुड़ दैत्य का वध करने के पश्चात सती तुलसी को वरदान देते हुए कहते हैं कि हे तुलसी, तुमने मेरे लिये बहुत तपस्या की है अत:तुम मुझे सबसे प्रिय हो । तुम इस शरीर का त्याग कर दिव्य देह धारण कर सदा मेरे समीप रहोगी । तुम्हारा यह पुराना शरीर प्रसिद्ध "गण्डकी" नदी में बदल जायेगा । तुम्हारे केश से पवित्र पेड़ उत्पन्न होंगे, जो तुम्हारे तुलसी नाम से प्रसिद्ध होंगे । तीनों लोकों में देवताओं की पूजा में प्रयुक्त होने वाले जितने भी पत्र-पुष्प हैं उनमें तुलसी प्रधान मानी जायेगी । स्वर्ग,धरती, पाताल और बैकुंठलोक में सर्वत्र तुम मेरे संनिकट रहोगी । तुलसी पेड़ के नीचे का स्थान परम पवित्र एवं मोक्षदायक होंगे । वहाँ सम्पूर्ण तीर्थों एवं समस्त देवों का भी निवास होगा । तुलसी-पत्र से जिसका अभिषेक हो गया, उसे सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान करने एवं समस्त यज्ञों में दीक्षित होने का फल प्राप्त हो गया । हे तुलसी , कोटि सुधा-कलशों के अभिषेक पर मुझे उतनी प्रसन्नता प्राप्त नहीं होती , जितना एक तुलसी-पत्र अपर्ण करने से होती है । हे पतिव्रते, दस हजार गौदान का पुण्य मात्र एक तुलसी-पत्र अपर्ण करने से प्राप्त होता है । मरते समय जिसके मुख में तुलसी- जल पड़ जाय , वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक को जाता है । जो मनुष्य नित्यप्रति भक्तिपूर्वक तुलसी- जल ग्रहण करता है उसे गंगास्नान का फल मिलता है । जो मानव प्रतिदिन मुझे तुलसी-पत्र अपर्ण करता है , वह लाख अश्वमेध यज्ञ का पुण्यभागी होता है । जो मनुष्य तुलसी को हाथ में लेकर या शरीर पर रखकर तीर्थ में प्राण त्यागताहै, वह मेरे धाम को प्राप्त होता है । तुलसी-माला धारण करने से प्रत्येक पग पर अश्वमेध यज्ञ का पुण्यलाभ होता है ।
जो मानव तुलसी को हाथ में लेकर या तुलसी के निकट झुठी शपथ लेता है,वह घोर नरकों में जाता है । जो पूर्णिमा,अमावस्या,द्वादशी और सूर्य-संक्राति को,मध्यान्ह,रात्रि,दोनों संध्याओं, अशौच के समय , तेल लगाकर बिना स्नान ,एंव जूठे कपड़े पहने तुलसी-पत्र तोड़ता है,वह मानों श्री हरि का मस्तक छेदन करते है । श्राध्द , व्रत,दान प्रतिष्ठा तथा देवार्चन हेतु तुलसी-पत्र बासी होने पर भी तीन रात तक पवित्र ही रहता है । धरती पर या जल में गिरा हुआ तथा श्रीहरि को अर्पित तुलसी-पत्र धोकर दुसरे कार्य हेतु शुध्द माना जाता है ।

श्रीबजरंग बाण स्त्रोत

" श्री हनुमते नमः "


निश्चय प्रेम प्रतिति ते , विनय करें सन्मान ।
तेहि के कारज सकल शुभ , सिद्ध करें हनुमान ॥

जय हनुमंत संत हितकारी, सुन लीजै प्रभु विनय हमारी ।
जन के काज विलंब न कीजै , आतुर दौरि महासुख दीजै ॥
जैसे कुदि सिन्धु के पारा , सुरसा बदन पैठि विस्तारा ।
आगे जाय लंकिनी रोका , मारेहु लात गई सुरलोका ॥
जाय विभीषन को सुख दीन्हा , सीता निरखि परमपद लीन्हा ॥
बाग उजारि सिन्धु मह बोरा , अति आतुर जमकातर तोरा ॥
अक्षयकुमार मारि संहारा , लूम लपेटि लंक को जारा ॥
लाह समान लंक जरि गई , जय जय धुनि सुरपुर नभ भई ॥
अब विलम्ब केहि कारन स्वामी , किरपा करहु उर अंतरयामी ॥
जय जय लखन प्राण के दाता , आतुर ह्वै दुख करहु निपाता ॥
जय हनुमान जयति बलसागर , सुर समुह समरथ भटनागर ॥
ॐ हनु हनु हनु हनुमंत हठीले , बैरिहि मारु वज्र के कीले ॥
ॐ हीं हीं हीं हनुमंत कपीसा , ॐ हुं हुं हुं हनु अरि उर सीसा ॥
जय अंजनिकुमार बलवंता , शंकरसुवन वीर हनुमंता ॥
बदन कराल काल कुल घालक , राम सहाय सदा प्रतिपालक ॥
अग्नि बेताल काल मारिमर , भूत प्रेत पिशाच निशाचर ॥
इन्हें मारु तोहि शपथ राम की , राखु नाथ मरजाद नाम की ॥
सत्य होहु हरि शपथ पाई कै , रामदुत धरु मारु धाई कै ॥
जय जय जय हनुमंत अगाधा , दुख पावत जन केहि अपराधा ॥
पूजा जप तप नेम अचारा , नहि जानत कछु दास तुम्हारा ॥
बन उपवन मग गिरि ग्रह माहीं , तुम्हरें बल हौं डरपत नाहीं ॥
जनकसुता हरिदास कहावौं , ताकी सपथ विलम्ब न लावौं ॥
जय जय जय धुनि होत अकासा , सुमिरत होय दुसह दुख नासा ॥
चरन पकरि कर जोरि मनावौं , यहि औसर अब केहि गोहरावौं ॥
उठ उठ चलु तोहि राम दोहाई , पांय परौं कर जोरि मनाई ॥
ॐ चम चम चम चम चपल चलंता , ॐ हनु हनु हनु हनु हनु हनुमंता ॥
ॐ हं हं हांक देत कपि चंचल , ॐ सं सं सहमि पराने खलदल ॥
अपने जन को तुरंत उबारौं , सुमिरत होय अनंद हमारौं ॥
यह बजरंग बाण जेहि मार्रै , ताहि कहौ फ़िरि कवन उबारै ॥
पाठ करै बजरंग बाण की , हनुमंत रक्षा करै प्राण की ॥
यह बजरंग बाण जो जापै , तासो भूत प्रेत सब कांपै ॥
धूप देय जो जपै हमेशा , ताके तन नहि रहे कलेशा ॥
उर प्रतिति द्रुढ सरन ह्वै , पाठ करै धरि ध्यान |
बाधा सब हर करै सब , काम सफल हनुमान ||