मंगलवार, 1 जुलाई 2008

श्री मानस रस मंजरी (५)

गताँक से आगे...
श्री द्शरथ जी सूर्यदेव से याचना करते है कि श्रीराम को आपकी प्रखर किरणें व शीत किरणें दुखदायी न हो । अपने श्रीराम का प्रकाश शत्रुओं के सामने सूर्य जैसे चमकना चाहिये । अगर आपका उदय अयोध्या में हो गया तो मेरा प्राणांत हो जायेगा । इस प्रकार विलाप करते हैं । रोते और माथा कूटते हैं -
" माथे हाथ मूँद दोऊ लोचन , तनु धरि सोच लागि जनु सोचन ॥ "
आपके उदय होते ही हमारी प्रजा का, अयोध्यापुरी का सूर्य वन को चला जायेगा । यहाँ पर श्रीराम के दर्शन नहीं होगें । हमारे नैन ज्योतिहीन हो जायेगें -
" गारी सकल कैकई देही ,नैन विहीन कीन्ह जग जेहि ॥ "
नेत्र तभी तक सार्थक है -
" सवैया :- नैन वही जो लखे हरि को । अरु बैन वही हरि नाम उचारे ॥
कान वही जो सुने प्रभु के गुन । दान वही जो भव पार उतारे ॥
नाम वही जो छाय रहे । सर नाम वही प्रभु तनु गारे ॥
ध्यान वही जो लगे निसिवासर । ग्यान वही जो विवेक विचारे ॥"

" नैनवंत रघुवरहि विलोकि । पाये जनम फल होहि विसोकि ॥"
श्री द्शरथ जी कहते हैं -
"धिग जीवन रघुवीर विहीना "
जब हमारे राम वन को चले जायेगें तो हमारा जीवन व्यर्थ हो जायेगा । इसलिये हे सूर्यदेव आपका बारह राशियों पर अधिकार है । बारह राशियों के सूर्य होते हैं । जिनका हर राशि का प्रभाव अलग-अलग होता है । जिस समय वृश्चिक राशि के सूर्य होते हैं, उस समय सूर्य बलवान हो जाते हैं । वृश्चिक राशि के सूर्य का सर्पदंस मुश्किल से ही ठीक होता है । बारह "र" से इसलिये भी प्रणाम करते हैं ,एक वर्ष में बारह महिने होते हैं । बारह राशियों के सूर्य बारह महिने रक्षा करें । बारह बजे दिन को श्रीरामजी प्रगट हुये थे ,इसलिये बारह बार "र " से याद दिलाते हैं कि,
"बारह कला राम अवतारा , सौलह कला कृष्ण सुखसारा ॥
बारह कला से अवतरित श्रीराम के दर्शन करने को हे सूर्यदेव आपने अयोध्या में एक महिने के लिये अखण्ड डेरा डाल दिया था -
"मध्य दिवस अति शीत न घामा , पावन काल लोक विश्रामा ॥
दोहा ;- मास दिवस का दिवस भा ,मर्म न जाने कोय ।
रथ समेत रवि थाकेऊ, निशा कवन विधि होय ॥ "
अयोध्या में श्रीराम जन्म महोत्सव देखकर आप अपना रथ चलाना भूल गये थे -
" कौतुक देख पतंग भुलाना ,मास दिवस तेहि जात न जाना ॥
यह रहस्य काहू न जाना , दिनमनि चले करत गुनगाना ॥ "
हे भास्कर , हे स्वामी ,जब आप आनंद के समय अयोध्या के साथी रहे तो ,आज संकट में भी साथ दीजिये !आप उदय मत होईये । आप अयोध्या के सुख में सुख ,दुख में दुख मानते हैं । तो अयोध्या को दुखी देखकर आपके ह्रदय में सूल जैसा दर्द होगा -
"अवध विलोकि सूल होयहि उर "
श्री द्शरथ जी ने विचार किया होगा अब श्रीराम का वनवास रोकना हमारे बस का नहीं रहा , देवताओं से प्रार्थना करुँ, तब काम बन जायेगा । क्योंकि हमने भी देवासुर संग्राम में देवताओं की तरफ से इन्द्रलोक जाकर दैत्यों से युध्द किया था । देवता भी हमारे सभी उत्सव में आते हैं । जैसे पुत्रेष्टि यज्ञ हमने किया तो देवता आये-
"भगति सहित मुनि आहुति दीन्हे ,प्रगटे अग्नि चरु कर लीन्हे ॥"
अग्निदेव प्रगट होकर मुनि वशिष्ठजी से कहते हैं -
"जो वशिष्ठ कछु ह्रदय विचारा ,सकल काजू भा सिध्द तुम्हारा ॥
यह हवि बाँटि देहु नृप जाई , यथा जोग जेहि भाग बनाई ॥"
इस प्रकार अग्निदेव समझा कर -
" तब अहृश्य पावक भये ,सकल सभहि समुझाइ ।
परमानंद मगन नृप , हर्ष न ह्रदय समाइ ॥"
श्रीद्शरथ जी सोचते हैं कि ,इस यज्ञ में देवता आये , अग्निदेव ने आकर श्री गुरुदेव को प्रसाद बाँटने का तरीका समझा कर गये । श्रीराम- सीता विवाह के समय भी सब देवता सूर्यनारायण सहित आये -
"सिव ब्रम्हादिक विबुध वरूथा , चढ़े विमानहि नाना यूथा ॥
प्रेम पुलक तन ह्रदय उछाहू ,चले विलोकन राम ब्याहू ॥ "
सब देवता जनकपुरी में इस समय जितने विवाह हुये उनको देखने आये और जनकपुरी की सजावट देखकर उनको अपने सुरलोक की शोभा लघु लगने लगी ।
"देखि जनकपुर सुर अनुरागे ,निज निज लोक सबहि लघु लागे ।"
जिस समय वहाँ के मंडप वितान देखें तो श्री मानसकार लिखते हैं -
"चितवहि चकित विचित्र विताना , रचना सकल अलौकिक नाना ॥ "
जिस समय नर-नारियों को देखने लगे तो देवता और देव-वधुओं को जो अपनी सुन्दरता का अभिमान था , चूर चूर हो गया -
" नगर नारि नर रूप निधाना ,सुघर सुधर्म सुशील सुजाना ।
तिनहि देख सब सुर नर नारि ,भये नखत जनु विधु उजयारि ॥ "
जनकपुर के नर-नारियों के सामने देवताओं की सुन्दरता फीकी पड़ गयी । जैसे चन्द्रमा के समक्ष तारागण तेजहीन लगते हैं । ब्रह्माजी ने सोचा जो यहाँ इतनी सुन्दर रचना की है इन्हौंने, तोरन पताका बनाये है , फल और फूलों से सजावट की है । वह तो वृक्षों से ही लिये हैं जो मैंने पृथ्वी पर बनाये हैं । मोर पपीहा कोयल तोता इत्यादि नाना प्रकार के पक्षी जो यहाँ सजावट के लिये रखे गये हैं । वे सब मेरी ही रचना है । ऐसा ब्रह्माजी को अभिमान हुआ । परन्तु जब छूकर देखा तो वहाँ पर श्रीब्रह्माजी की सृष्टि का कोई पेड़ , पौधा , पत्ता ,फल-फूल था ही नहीं ! वे सब मणि, माणिक, स्वर्ण, आदि पदार्थों से निर्मित थे । चतुर कारीगरों ने केला के वृक्ष बनाये वह सोने के हैं ।
" विधिहि वंदि जिन्ह कीन्ह अरंभा , विरचे कनक कदलि के खंभा ॥"
हरे मणियों के पत्ते और फूल बनाये गये थे ।
" हरित मणिन के पत्र फल , पदुमराग के फूल ।
रचना देखि विचित्र अति , मन विरंच कर भूल ॥"
वृक्षों पर जो बेला लताऐं दिख रही है , वह स्वर्ण मणियों से बनाई गयी है ।
" बेनु हरित मणिमय सब कीन्हे , सरल सपरन परहि नहिं चीन्हे ।
कनक कलित अहि बेलि बनाई, लखि नहि परई सपन सुहाई ॥
माणिक मरकत कुलिस पिरोजा , चीरि कोरि पचि रचे सरोजा ।"
माणिक आदि के कमलपुष्प आदि बनाये गये थे ।
"किये भृंग बहुरंग बिहंगा , गुँजहि कुँजहि पवन प्रसंगा ॥"
जब श्रीब्रह्माजी मोर,पपीहा,वृक्षों और लताओं को हाथ लगाया तो चौंक पड़े । अरे यह तो मेरी रचना नहीं है । जब नर -नारियों को देखा यह मेरी रचना होगी -
" सब नर नारि सुभग श्रुति संता , धर्मशील ज्ञानी गुणवंता ॥"
ब्रह्माजी ने अपनी सवारी रोककर कहने लगे - " क्या कोई दूसरा ब्रह्मा हो गया है जिसने यह रचना की है ?" देवता भी खड़े हो गये । जब उन्होंने देखा -
" सुर प्रतिमा खंभन गहि काढ़ि , मंगल द्रव्य लिये कर ठाड़ी ॥"
जब देवताओं ने अपने ही समान देवता खंभों में देखा । मंगल वस्तुएँ हाथों में लिये हैं । गणेशजी गणेश को , ब्रह्माजी ब्रह्मा को , कुबेरजी कुबेर को सब देवता अपने समान दूसरों को देख चकित हो खड़े रह गये । तब -
" विधिहि भयऊ आचरज विसेखी , निज करनी कछु कतऊ नहि देखी ॥"
उस समय देवाधिदेव महादेवजी ने सबको समझाया । आज का मानव समझाता नहीं ,बिगाड़ता है । भगवान सदाशिव ने कहा - गोस्वामीजी लिखते हैं -
"शिव समुझाये देव सब , जनि आचरज भुलाहू ।
हृदय विचारहु धीर धरि , सिय रघुवीर ब्याहू ॥
एहि विधि संभु सबहि समुझावा , पुनि आगे बर बसहि चलावा ॥ "
भोलेनाथ के समझाने पर सब देव प्रसन्न होकर आगे बढ़े ।
दशरथजी सोचते हैं कि देवता हमारे यज्ञ में आये , रामजी के विवाह में आये । सुख में साथ दिया तो दुख की घड़ी में भी सहायता करेगें । रामजी को वनवास नहीं जाने देगें, ऐसा कुछ उपाय करेगें ।
" राय राम राखन हित लागी , बहुत उपाय किये छल त्यागी ।"
विधि मनाव राऊ मन माही , जेहि रघुनाथ न कानन जाही ॥"
श्रीदशरथजी ब्रह्माजी को मनाते हैं कि , आपकी कृपा से मेरे राम को जंगल न जाना पड़े -
" सुमर महेशहि कहहि निहोरी , विनती सुनहु सदाशिव मोरी ।
आशुतोष तुम अवढर दानी । आरति हरहु दीन जनु जानी ॥ "
दोहा :- तुम प्रेरक सबके हृदय , सो मति रामहि देहु ।
वचनु मोर तजि रहहिं घर , परिहरि सीलु सनेहु ॥"
श्री दशरथजी शंकरजी से प्रार्थना करते हैं कि श्रीराम मेरी आज्ञा को न माने , मेरी बात न माने ! आज हम देवताओं को मनाते हैं कि हमारे पुत्र हमारी बात मानें । यह हमारे चरित्र की कमी है । तो -
" राय राम राखन हित लागी , बहुत उपाय किये छल त्यागी ।"
परन्तु कोई उपाय ने काम नही दिया । कोई देवताओं ने इनकी सहायता नहीं की । क्योंकि श्रीराम वनवास देव-इच्छा से देव- सम्मति से ही हो रहा था । इस कार्य में ब्रह्मा एवं ब्रह्माणी जी सहित सभी देवता लगे हुये थे कि , रामजी का वनवास शीघ्र हो । किसी प्रकार रूक नाजायें । स्वार्थी देवता दशरथ जी की प्रार्थना क्यों सुनेगें ?
शेष अगले अंक में ...

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