मंगलवार, 8 जुलाई 2008

श्री मानस रस मंजरी (७)

गताँक से आगे----
राजा विलाप करते है , दीन हीन की तरह -
" " दोहा - राम राम कहि,राम कहि , राम राम कहि राम ।
तनु परिहर रघुवर विरह , राऊ गये सुरधाम ॥ "
श्रीगोस्वामीजी ने इस दोहे को तेरह "र" किसलिये दिये है , यह तो मानसकार संत ही समझ सकते हैं । अपन तो अपनी संतोष के लिये लिख रहे हैं । श्रीतुलसीदास महाराजजी ने दशरथजी के मुख से दो चौपाई,एक दोहा में
बारह "ह" बुलवाये -
" हा रघुनंदन प्राणपिरीते, तुम्हबिन जियत बहुत दिन बीते ।
हा जानकी लखन हा रघुवर ,हा पितु हित चातक जलधर ॥
दोहा - राम राम कहि,राम कहि , राम राम कहि राम ।
तनु परिहर रघुवर विरह , राऊ गये सुरधाम ॥ "
दोहा की दुसरी लकीर में सात "र" गोस्वामीजी ने स्वंय अपनी तरफ़ से लिखे हैं । शायद उन्होंने सोचा होगा कि सातों द्वीप में दशरथजी जैसा भाग्यशाली पुरुष नहीं हुआ , जो बारह "र" बोलते हुये शरीर त्यागे । "र" कोई साधारण अक्षर नहीं है -
"रकार ईश्वर मकार जीव , आकार माया जान ।
तीनों मिल ताली बजी , संसय बिहंग उड़ान ॥"
मारीच कहता है - "र" का प्रभाव बताता है -
"रा असनाम सुनत दसकंधर , रहत प्राण नहि मम उर अंतर ।"
रामनाम का प्रभाव भगवान शंकर जी जानते है -
" नाम प्रभाव जान शिव नीके ,कालकूट फल दीन्ह अमीके ॥"
जिस समय समुद्र-मंथन से हलाहल विष निकला , उस जगह का तेज देवताओं को, सात स्वर्ग को नष्ट किये दे रहा था ।
"जरत सकल सुर वृन्द , विषम गरल जेहि पान किय ।"
तब भोले भगवान ने अपने इष्ट का ध्यान कर पहले "रा" बोलकर उस हलाहल जहर को पी लिया और ऊपर से "म" शब्द का ढक्कन लगा दिया । अर्थात "रा"और "म" के बीच में जहर को रखने या पीने से विष का असर नहीं हुआ । शंकरजी ने उस हलाहल को अपने कंठ में रखा । जिससे उनका कंठ नीला हो गया और वे नीलकंठ कहलाये । जहर के खाने से प्राणी मर जाता है । परन्तु इस नाम के प्रभाव से -
" कालकूट फल दीन्ह अमीके "
ऐसे नाम को दशरथजी छह बार "राम" और छह बार केवल "र" बोलते हुये -" राऊ गये सुरधाम "
यह संवाद जब वशिष्ठजी ने सुना और अन्य मुनिजनों ने सुना तो आश्चर्यचकित हो सोचने लगे -
" जन्म जन्म मुनि जतनु करा्हीं , अंत राम कहि आवत नाहीं ।"
मुनि समुह में एक चर्चा का विषय बन गया । अरे ! राजा दशरथ ने प्राण त्यागते समय एक बार नहीं छह बार "राम" और छह बार केवल "र" कहा । धन्य है ! वह राजा अज जिनके ऐसे पुण्यशाली बड़भागी पुत्र हुए ।
इसीलिये शायद श्री गोस्वामीजी ने रावण, कुंभकर्ण के पिता का नाम अपनी रामचरित मानस में नहीं लिखा । जिससे ऐसे नालायक पुत्र हो जो घड़ों से , मटकों से शराब पी जाये । मांस के लिये मरे हुये नहीं बल्कि जीवित भैंस, बोदा खा जाय । कुंभकर्ण के बारे में लिखा है कि , जब वह जागा तब रावण ने उसके लिये पीने-खाने का क्या प्रबन्ध किया । एक प्लेट खारा या आलूपोंडे, समोसा नहीं मँगाया , क्या मँगाया--
" रावण मांगेहु कोटि घट , मद अरु महिष अनेक ।"
" महिष खाइ करि मदिरा पाना , गर्जा वज्राघात समाना ।"
" रण मदमत्त फ़िरे जग धावा , प्रति भट खोजत कतहु न पावा ।
पुनि पुनि सिंहनाद करि भारी , देय देवतन्ह गारि प्रचारी ।"
दुष्ट कलह प्रिय होते हैं सज्जन ,संत शान्तिप्रिय होते हैं । जब रावण सब प्रकार का वैभव और बल पा चुका , तो शान्ति से सुख भोगना था या भजन करता ! पर नहीं --
" रण मदमत्त फ़िरे जग धावा , प्रति भट खोजत कतहु न पावा ।
पुनि पुनि सिंहनाद करि भारी , देय देवतन्ह गारि प्रचारी ।"
इसीलिये रावण के पिता ,रावण के बड़े भाई की कोई चर्चा नहीं बल्कि इनका नाम भी नहीं दिया ।
इनका प्रमाण मिलता है अदभुत रामायण में ( सप्तदस सर्ग श्लोक 40 )
" सुमाली राक्षसश्रेष्ठः कैकसी नाम तत सुता,
मुने विश्रवः पत्नि सासुत रावण द्वयम ॥"
सुमाली नाम का एक बड़ा भारी राक्षस था जिसकी कन्या का नाम कैकसी था । वह मुनि विश्रवा की पत्नि हुई , जिससे दो रावण नाम के पुत्र हुये ।
" एक सहस्त्र वदनौ , द्वितीयौ दशवक्रकः । जन्म कालै सुरैशान्तकमाकाशे रावण द्वयम ॥"
बड़ा भाई हजार मुखवाला और छोटा दस मुखवाला जो लंका में था । बड़ा भाई सहस्त्रमुख रावण पाताल में निवास करता था । जिसे बाद में श्री सीताजी ने इसका संहार किया था । ऐसी कथा अदभुत रामायण में आती है ।
ऐसे कुपुत्रों का नाम लेना भी पाप होता है । तो मुनि लोग श्रीदशरथजी के पिताजी की जयजयकार करने लगे और कहने लगे -
" " जन्म जन्म मुनि जतनु करा्हीं , अंत राम कहि आवत नाहीं ।"
मुनिजन कहते हैं कि , धन्य उन दशरथजी को जो केवल श्री राम का नाम ही नहीं , साथ में भक्तिस्वरुपा श्री सीताजी जो परब्रम्ह की माया , आदिशक्ति को भी स्मरण करते हैं ,और साथ ही वैराग्य का भी स्मरण करते हैं । हमको भी याद रखना है कि हम केवल भजनानंदी ही न बन जाये । भगवान को पाने के लिये भक्ति और वैराग्य की भी जरुरत है । तभी तो दशरथ जी भी विरागी लक्ष्मण की याद करते हैं -
"हा जानकी लखन हा रघुवर "
जानकी जी को याद कर रहे हैं । जानकीजी कौन हैं ? जिस समय श्री शंकरजी, ब्रह्मादि सब देवता सुमेरु पर्वत पर परब्रह्म परमात्मा से रावण का अत्याचार सुनाने को आतुर हो स्तुति करने लगे तब आकाशवाणी हुई और ब्रह्यवाणी ने कहा । हम अंशों सहित अवतार लेगें , साथ ही आदिशक्ति भी अवतार लेगी ।
" आदिशक्ति जेहि जग उपजाया , सो अवतरहि मोरि यह माया ।"
श्रीदशरथजी आदिशक्ति स्वरूपा सीताजी की याद करते करते प्राण त्याग दिये । सीताजी अयोध्या में रह जाती या सुमन्तजी के साथ गंगा किनारे से लौट आती तो भी श्रीदशरथजी के प्राण नहीं जाते । श्रीदशरथजी ने कहा था -
" जेहि विधि अवध आव फिरि सीया , सो रघुवरहि तुम्हहि करनीया ॥
श्री सुमन्तजी, श्री राम जी को बताते हैं कि,राजा श्रीदशरथजी ने कहा है- जैसे भी बने तुम चार दिन सीता को जंगल घुमा कर वापस ले आना , नहीं तो मैं जीवित न रह पाऊँगा ।
"नतरू निपट अवलंब विहीना , मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना ।"
तीनोंके वियोग में तीनों का नाम लेते-लेते - " राऊ गये सुरधाम " ।
सात "र" तुलसी बाबा ने अपनी तरफ़ से लगाये तो ,सोचा होगा कि , जब श्रीराम ने धनुष तोड़ा था तो स्वर्ग के सातों लोक के वासी-( भू,भुवः,स्वः,जन,तप,मह,और सत्यलोक )धनुष-भंग की आवाज से घबराकर अपने कानों में उंगली डालकर रह गये थे । इसी तरह नीचे के सातों लोक ( तल ,अतल,वितल,सुतल,तलातल,रसातल और पाताल ) श्रीगोस्वामी जी ने लिखा ---
" महि पाताल नाक यसु व्यापा , राम बरि सिय भंजेहु चापा ॥ "
" छंद - सुर असुर मुनि कर कान दीन्हे, सकल विकल विचारहिं "
पातालवासी असुर,ऊपर के लोकवासी देवता और मृत्युलोकवासी मुनि । ऐसे प्रभावशाली श्रीरामजी के पिताजी के स्वर्गवास की सूचना , बाबा तुलसी सात "र" लिखकर सात लोकों में पहुँचाते हैं । जो भी हो उसको भगवान ही जाने ।
शेष अगले अंक में-----