गुरुवार, 24 जुलाई 2008

श्री हनुमान लहरी

जय श्रीराम
" अथ श्री हनुमान लहरी "
दोहा
गुरु पद पंकज धारि उर , सुर नर शीश नवाय ।
मारूत सुत बलवीर कहं , ध्यावत चित मन लाय ॥
प्रथम वन्दि सियराम पद , अवध नारि नर संग ।
वन्दौ चरण सुध्यान धरि , हनुमत कंचन रंग ॥
मन चित देइ सुनौ विनै , हौं तुम दीन दयाल ।
और नहिं कछु वासना , दासहिं करहु निहाल ॥
तात बड़ाई रावरी , बिछुवत जोति अनन्द ।
सब विधि हीन मलीन मति , अहै दीन ब्रजनन्द ॥
जानै जग दातव्यता , नाथ मोर सरवस्य ।
पै बिरलै कोउ जानि हैं , यह अति गूढ़ रहस्य ॥
जय जय दारुण दुःखदलन , महावीर रणधीर ।
कर गहि लेउ उबार प्रभु , आय जुरी अति भीर ॥
गदगद गिरा गुमान तज , जुगल पाणि करि जोर ।
हनुमत अस्तुति करत हुँ ,सिगरी भांति निहोर ॥
" छप्पय छन्द "
जै पवनसुत दयानिधान दारिद दु:ख भंजन ।
जैति अंजनि तनय सदा सन्तन मन रंजन ॥
जैति वीर सिरताज लाज राखऊ मम आजू ।
जै जै रघुवर दास जासु साजेब शुभ काजू ॥
प्रभु जस करि बन्धु सु कहं कियो पार दु:ख सिन्धु सों ।
हनुमंत मेरो दु:ख दूर करो होउ सहाय सु बन्धु सों ॥
जैति जैति दुखहरन सरन अब मोको दीजै ।
जैति जैति हनुमंत अंत न थारो पईजै ।
जै अंजनिसुत वीर धीर अति धरम धुरन्धर ।
जय जय रघुकुल कुमुद चेट जय भच्छक रविकर ।
जय मारुतसुत तेजवान दुख-द्वंद दलैया ।
जय सीता सुख मूल तूल सम लंक जलैया ।
रघुवर कर सब काज लाल तुम आप संवारो ।
रुचिर वाटिका दशकन्धर कर नाथ उजारो ।
वानर दल कहं विजय तात तुम आप दिवायो ।
लंका कहं सन्धान करी सीता सुधि पायो ।
सुग्रीवहिं पहं राम आनि शुभं सखा बनायो ।
लाय विभीषण नाथ निकट तुम अभय करायो ।
सागर उतरेउ पार मेल मुद्रिका मुख माहीं ।
सुन शुभमय संवाद अचरज कोऊ नाहीं ।
लाय सजीवनि मुरि लखन कहं जीवित कीनो ।
शोक जलधि सो आप काढ़ि रघुवर कहं लीनो ।
रघुपति सादर सखा भाषि उर लावत भयऊ।
सकल शोक तत्काल ह्रदय सों बाहर गयऊ ।
श्रीमुख तेरे विशद गुणन को भाष्यो स्वामी ।
भरत बाहू बल होय तोहि कह अन्तरयामी ।
भाखि सुखद संवाद तात भय भरत नसायो ।
हरषि सुजस तत्काल अवध नारी-नर गायो ।
रघुपति कर कछु काज तात तुम बिन नहिं सरितो ।
सुरपुर मो जय जयति शब्द तुम बिन को भरितो ।
दोहा :- देइ बड़ाई वानरन ,असुरन को वध कीन ।
तो सम को प्रिय सीय को ,जासु शोक हर लीन ॥
जय जय शंकर सुवन जयति जय केसरीनन्दन ।
जय जय पवनकुमार जयति रघुवर पद वन्दन ॥
जय जय जनककुमारी प्यारी यह रघुपति पायक ।
जयति जयति जय जयति तात सुर साधु सहायक ॥
सकल द्वार सों हार हाय तुव द्वारहिं आयऊँ ।
दानशीलता देखि रावरी हिय सुख पायऊँ ॥
या दर सो महरूम तात अब कहां सिधारुं।
विपत काल में अहो नाथ अब काहि पुकारुं ॥
कर गहि लेउ उबार नाथ हूँ दास तिहारो ।
कर गहि लेउ उबार नाथ निज ओर निहारी ।
कर गहि लेउ उबार नाथ सिगरी विधि हारी ॥
गहि कर अजऊं अबारु नाथ भव सिन्धु अथाहै ।
गहि कर अजऊं अबारु नाथ ब्रज डूबन चाहै ॥
द्रवहु द्रवहु यहि काल नाथ मोको कोऊ नाहीं ।
द्रवहु द्रवहु यहि काल हार आयऊं तुव पाहीं ॥
द्रवहु द्रवहु हनुमत कपि दल के सिरताजू ।
द्रवहु द्रवहु कपिराज ताज तुम सन्त समाजू ॥
विनवत हौं कर जोर अजौं टारहु मम संकट ।
विनवत हौं कर जोर नाथ काटहु मम कंटक ॥
विनवत हो हे नाथ दया कर रन ते हेरहु ।
विनवत हो हे नाथ यह दारुण दुख टेरहु ॥
पद गहि विनवौं नाथ तोहिं कहं कस नहिं भावै ।
पद गहि विनवौं हाय नाथ तुव दया नहिं आवै ।
पद गहि विनवौं हाय अजहु मो अभय कीजै ।
पद गहि विनवौं हाय अजहु मो सुख सम्पत्ति दीजै ॥
सुखसागर आनन्द धन सन्तन के सिरमौर ।
दुख वन पावक नाथ तुम , सिर पर सोहत खौर ॥
रोला छन्द
आज जुरयो यहि काल मोहि पै दारुण सोको ।
सूझत ना तिहुं लोक मोहि तोसो कोउ मोको ।
स्वारथ हित सब जगत मांझ राखत है प्रीती ।
पै रौरी हे नाथ अहै अति अनूठी रीती ।
हाय हाय है नाथ हाय अब मों न बिसारहु ।
हाय हाय है नाथ हाय अब कोप निवारहु ।
धन बल विद्या हाय कछु नहीं मो ढिग सांई ।
कवन सम्पदा कवन तात कब तो बिन पाई ।
दीन हीन सब भांति हुजिये वेग सहायक ।
फेरिये कृपा कटाक्ष आप सब विधि सब लायक ।
सुखद कथा तुव हाय नाथ कस दीन सुभाखै ।
सदा सुचरन पाहिं चित्त आपन कस राखै ।
काम क्रोध मद लोभ मोह मोहिं सदा सतावैं ।
चित्त वित्त सो हीन दीन कस तो कहं पावैं ।
अजहुं होय सहाय मोर सब काज संवारहु ।
गयऊ सकल विधि हारि हाय अब मोहि संभारहु ।
सदा कहत सब लोग आप कहं संकटमोचन ।
सदा कहत सब लोग आप दारुण दुखमोचन ।
अपनहिं ओर निहारि नाथ मो कहं जनि हेरहु ।
आय जुरेउ दुख विकट ताहि कहं तुरतहिं टेरहु ।
और कहौ कत नाथ तोहिं कह बहुत बुझाई ।
और कहौ कत हाय मोहि सों कहि नहि जाई ।
सदन गुनन के खान दीन हित जन सुखदायक ।
पवनपुत्र दुख देख अजहुं प्रभु होहु सहायक ।
सोरठा :- अजहुं होय सहाय , तात निवारो दुख सब ।
कहा कहो समुझाय ,अजहुं न बिगरेऊ काज कछु ।
हरिगीतिका छन्द
बहु भांति विनय बहोरि हे प्रभु जोरि कर भाखत अहौं ।
तुव चरन रत मम मन रहे कछु और वर जासो लहौं
रघुवरी पायन पदुम पावन भृंग मोहि बनाईये ।
भव सिन्धु अगम अगाध सो प्रभु पार अजहु लगाईये ।
तुम तजि कहों कासों विपति अब नाथ को मेरी सुनै ।
रावरि भरोस सुवास तजि प्रभु और को कछु न गुनै ।
वैरि समाज विनाश कर हनुमान मोहि विजयी करौ ।
मेरी ढिठाई दोष अवगुन पै न चित्त सांई धरौ ।
जब लगि सकल न गुनान तजि नर आइ राउर पद गहै ।
तब लगि दावानल पाप को बहुत भांति तन मन ही दहै ।
जब लगि न रावरि होय नर सब भांति मन कर्म वचन ते ।
तब लगि न रघुवर दास होत करोर जोखिम यतन ते ।
यहि मान जिय परमान निश्चय सरन राउर हम गहै ।
परलोक लोक भरोस तजि नित नाथ का दरशन चहै ।
हम अपनि ओर निहोर बहु विधि नाथ नित विनती करो ।
हरषाय सादर नाथ तुम गुन गात निज हियरो धरो ।
जनि करहुं मोहि अनाथ नाथ सुदास हूँ मैं रावरो ।
हनुमान हैं शुचि पतित पावन दास जो पै रावरो ।
अबहुं करो सनाथ नाथ न तो जगत मोहि तोहि का कहै ।
यह रुचिर पावन स्वामि सेवक नेह नातो क्यौं रहै ।
दोहा :- विजय चहैं निज काज महं, हनुमत कहं सुनाय ।
लखि मेरी अज दुरदसा, द्रवहु अजहुं तुम धाय ।
सोरठा
हार देत सब काज , नाथ रावरे हाथ महं ।
सजहु सकल शुभ साज , भजहु जानि अब मोहि तजि ।
पंगु भई मो बुध्द , अकथ कथा कस कहि सकौं ।
करहु काज मम सिद्ध , और कहा तोसौं कहौं ।
सुनै न समुझे रीत , मगन भयो मन प्रेम महं ।
अब न सिखावहु नीत , यासो मोहि न काज कछु ।
नहि दर छाड़ब हाय , मारहु या जीवित राखहु ।
ब्रजनन्दन बिलखाय , भाखत साखी दैं सियहिं ।
पाहि पाहि भगवन्त , अब सुधि लीजै दास की ।
दीजै दरस तुरन्त , करिये कृतारथ दीन जन ।
मांगत दोउ कर जोरि , अभै दान तुम सन सदा ।
बारहि बार निहोरि , कहत करहु फुर मो वचन ।
जो याको चित्त लाय करे , पाठ शुचि प्रेम सों।
ताकर सकल बलाय , हरहु दरहु दारुण विपति ।
दोहा :-" हनुमान लहरी " पढ़त , हिय धरि पवनकुमार ।
सुजन दया करि दास पै , छमिहैं चूक अपार ।

जय श्रीराम

मंगलवार, 8 जुलाई 2008

श्री मानस रस मंजरी (७)

गताँक से आगे----
राजा विलाप करते है , दीन हीन की तरह -
" " दोहा - राम राम कहि,राम कहि , राम राम कहि राम ।
तनु परिहर रघुवर विरह , राऊ गये सुरधाम ॥ "
श्रीगोस्वामीजी ने इस दोहे को तेरह "र" किसलिये दिये है , यह तो मानसकार संत ही समझ सकते हैं । अपन तो अपनी संतोष के लिये लिख रहे हैं । श्रीतुलसीदास महाराजजी ने दशरथजी के मुख से दो चौपाई,एक दोहा में
बारह "ह" बुलवाये -
" हा रघुनंदन प्राणपिरीते, तुम्हबिन जियत बहुत दिन बीते ।
हा जानकी लखन हा रघुवर ,हा पितु हित चातक जलधर ॥
दोहा - राम राम कहि,राम कहि , राम राम कहि राम ।
तनु परिहर रघुवर विरह , राऊ गये सुरधाम ॥ "
दोहा की दुसरी लकीर में सात "र" गोस्वामीजी ने स्वंय अपनी तरफ़ से लिखे हैं । शायद उन्होंने सोचा होगा कि सातों द्वीप में दशरथजी जैसा भाग्यशाली पुरुष नहीं हुआ , जो बारह "र" बोलते हुये शरीर त्यागे । "र" कोई साधारण अक्षर नहीं है -
"रकार ईश्वर मकार जीव , आकार माया जान ।
तीनों मिल ताली बजी , संसय बिहंग उड़ान ॥"
मारीच कहता है - "र" का प्रभाव बताता है -
"रा असनाम सुनत दसकंधर , रहत प्राण नहि मम उर अंतर ।"
रामनाम का प्रभाव भगवान शंकर जी जानते है -
" नाम प्रभाव जान शिव नीके ,कालकूट फल दीन्ह अमीके ॥"
जिस समय समुद्र-मंथन से हलाहल विष निकला , उस जगह का तेज देवताओं को, सात स्वर्ग को नष्ट किये दे रहा था ।
"जरत सकल सुर वृन्द , विषम गरल जेहि पान किय ।"
तब भोले भगवान ने अपने इष्ट का ध्यान कर पहले "रा" बोलकर उस हलाहल जहर को पी लिया और ऊपर से "म" शब्द का ढक्कन लगा दिया । अर्थात "रा"और "म" के बीच में जहर को रखने या पीने से विष का असर नहीं हुआ । शंकरजी ने उस हलाहल को अपने कंठ में रखा । जिससे उनका कंठ नीला हो गया और वे नीलकंठ कहलाये । जहर के खाने से प्राणी मर जाता है । परन्तु इस नाम के प्रभाव से -
" कालकूट फल दीन्ह अमीके "
ऐसे नाम को दशरथजी छह बार "राम" और छह बार केवल "र" बोलते हुये -" राऊ गये सुरधाम "
यह संवाद जब वशिष्ठजी ने सुना और अन्य मुनिजनों ने सुना तो आश्चर्यचकित हो सोचने लगे -
" जन्म जन्म मुनि जतनु करा्हीं , अंत राम कहि आवत नाहीं ।"
मुनि समुह में एक चर्चा का विषय बन गया । अरे ! राजा दशरथ ने प्राण त्यागते समय एक बार नहीं छह बार "राम" और छह बार केवल "र" कहा । धन्य है ! वह राजा अज जिनके ऐसे पुण्यशाली बड़भागी पुत्र हुए ।
इसीलिये शायद श्री गोस्वामीजी ने रावण, कुंभकर्ण के पिता का नाम अपनी रामचरित मानस में नहीं लिखा । जिससे ऐसे नालायक पुत्र हो जो घड़ों से , मटकों से शराब पी जाये । मांस के लिये मरे हुये नहीं बल्कि जीवित भैंस, बोदा खा जाय । कुंभकर्ण के बारे में लिखा है कि , जब वह जागा तब रावण ने उसके लिये पीने-खाने का क्या प्रबन्ध किया । एक प्लेट खारा या आलूपोंडे, समोसा नहीं मँगाया , क्या मँगाया--
" रावण मांगेहु कोटि घट , मद अरु महिष अनेक ।"
" महिष खाइ करि मदिरा पाना , गर्जा वज्राघात समाना ।"
" रण मदमत्त फ़िरे जग धावा , प्रति भट खोजत कतहु न पावा ।
पुनि पुनि सिंहनाद करि भारी , देय देवतन्ह गारि प्रचारी ।"
दुष्ट कलह प्रिय होते हैं सज्जन ,संत शान्तिप्रिय होते हैं । जब रावण सब प्रकार का वैभव और बल पा चुका , तो शान्ति से सुख भोगना था या भजन करता ! पर नहीं --
" रण मदमत्त फ़िरे जग धावा , प्रति भट खोजत कतहु न पावा ।
पुनि पुनि सिंहनाद करि भारी , देय देवतन्ह गारि प्रचारी ।"
इसीलिये रावण के पिता ,रावण के बड़े भाई की कोई चर्चा नहीं बल्कि इनका नाम भी नहीं दिया ।
इनका प्रमाण मिलता है अदभुत रामायण में ( सप्तदस सर्ग श्लोक 40 )
" सुमाली राक्षसश्रेष्ठः कैकसी नाम तत सुता,
मुने विश्रवः पत्नि सासुत रावण द्वयम ॥"
सुमाली नाम का एक बड़ा भारी राक्षस था जिसकी कन्या का नाम कैकसी था । वह मुनि विश्रवा की पत्नि हुई , जिससे दो रावण नाम के पुत्र हुये ।
" एक सहस्त्र वदनौ , द्वितीयौ दशवक्रकः । जन्म कालै सुरैशान्तकमाकाशे रावण द्वयम ॥"
बड़ा भाई हजार मुखवाला और छोटा दस मुखवाला जो लंका में था । बड़ा भाई सहस्त्रमुख रावण पाताल में निवास करता था । जिसे बाद में श्री सीताजी ने इसका संहार किया था । ऐसी कथा अदभुत रामायण में आती है ।
ऐसे कुपुत्रों का नाम लेना भी पाप होता है । तो मुनि लोग श्रीदशरथजी के पिताजी की जयजयकार करने लगे और कहने लगे -
" " जन्म जन्म मुनि जतनु करा्हीं , अंत राम कहि आवत नाहीं ।"
मुनिजन कहते हैं कि , धन्य उन दशरथजी को जो केवल श्री राम का नाम ही नहीं , साथ में भक्तिस्वरुपा श्री सीताजी जो परब्रम्ह की माया , आदिशक्ति को भी स्मरण करते हैं ,और साथ ही वैराग्य का भी स्मरण करते हैं । हमको भी याद रखना है कि हम केवल भजनानंदी ही न बन जाये । भगवान को पाने के लिये भक्ति और वैराग्य की भी जरुरत है । तभी तो दशरथ जी भी विरागी लक्ष्मण की याद करते हैं -
"हा जानकी लखन हा रघुवर "
जानकी जी को याद कर रहे हैं । जानकीजी कौन हैं ? जिस समय श्री शंकरजी, ब्रह्मादि सब देवता सुमेरु पर्वत पर परब्रह्म परमात्मा से रावण का अत्याचार सुनाने को आतुर हो स्तुति करने लगे तब आकाशवाणी हुई और ब्रह्यवाणी ने कहा । हम अंशों सहित अवतार लेगें , साथ ही आदिशक्ति भी अवतार लेगी ।
" आदिशक्ति जेहि जग उपजाया , सो अवतरहि मोरि यह माया ।"
श्रीदशरथजी आदिशक्ति स्वरूपा सीताजी की याद करते करते प्राण त्याग दिये । सीताजी अयोध्या में रह जाती या सुमन्तजी के साथ गंगा किनारे से लौट आती तो भी श्रीदशरथजी के प्राण नहीं जाते । श्रीदशरथजी ने कहा था -
" जेहि विधि अवध आव फिरि सीया , सो रघुवरहि तुम्हहि करनीया ॥
श्री सुमन्तजी, श्री राम जी को बताते हैं कि,राजा श्रीदशरथजी ने कहा है- जैसे भी बने तुम चार दिन सीता को जंगल घुमा कर वापस ले आना , नहीं तो मैं जीवित न रह पाऊँगा ।
"नतरू निपट अवलंब विहीना , मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना ।"
तीनोंके वियोग में तीनों का नाम लेते-लेते - " राऊ गये सुरधाम " ।
सात "र" तुलसी बाबा ने अपनी तरफ़ से लगाये तो ,सोचा होगा कि , जब श्रीराम ने धनुष तोड़ा था तो स्वर्ग के सातों लोक के वासी-( भू,भुवः,स्वः,जन,तप,मह,और सत्यलोक )धनुष-भंग की आवाज से घबराकर अपने कानों में उंगली डालकर रह गये थे । इसी तरह नीचे के सातों लोक ( तल ,अतल,वितल,सुतल,तलातल,रसातल और पाताल ) श्रीगोस्वामी जी ने लिखा ---
" महि पाताल नाक यसु व्यापा , राम बरि सिय भंजेहु चापा ॥ "
" छंद - सुर असुर मुनि कर कान दीन्हे, सकल विकल विचारहिं "
पातालवासी असुर,ऊपर के लोकवासी देवता और मृत्युलोकवासी मुनि । ऐसे प्रभावशाली श्रीरामजी के पिताजी के स्वर्गवास की सूचना , बाबा तुलसी सात "र" लिखकर सात लोकों में पहुँचाते हैं । जो भी हो उसको भगवान ही जाने ।
शेष अगले अंक में-----

रविवार, 6 जुलाई 2008

श्री मानस रस मंजरी (६)

गताँक से आगे ----
जिस समय मानव पर संकट आता है , उस समय अपने भी पराये हो जाते हैं । जैसे कमल, तालाब या समुद्र में होता है । पर पाला या तुषार से उसकी कोई रक्षा नहीं करता । जबकि समुद्र में उत्पन्न होने से वरुण देव उनके पिता हुये,
कमल से ब्रह्मा हुये अर्थात ब्रह्माजी उनके पुत्र हुये । सागर से ही अमृत, चन्द्रमा, रंभा, लक्ष्मीजी, निकली , ये सब कमल के सहोदर हुये । लक्ष्मीपति भगवान विष्णु इनके जीजाश्री लगे । परन्तु इन सब के रहते तुच्छ तुषार से कमल बच नहीं पाता !
" सवैया :- वारिध तात हते ,विधि से सुत , अमृत सोम सहोदर जोई ।
रंभा रमा जिनकी भगिनी , मघवा मधुसुदन से बहनोई ॥
तुच्छ तुषार ने मार दिये , पै करि ना सहाय हते सब कोई ।
जै दिन है दुख के सुन रे नर ,ता दिन होत सहाई ना कोई ॥"
आज श्रीदशरथ जी की कोई नहीं सुनते । दशरथजी कोई साधारण व्यक्ति नहीं है .
"दोहा :- दसों इन्द्रियाँ बस करें , दसों दिशा रथ जाय ।
राजन ऐसे लाल का , दशरथ नाम कहाय ॥"
जिसने अपनी दसों इन्द्रियाँ जीत ली है , दसों इन्द्रियाँ का जिसने रथ बना लिया है । जिसने अपनी दसों इन्द्रियाँ को विषयों से रोककर प्रभु को समपर्ण कर दिया , उसका नाम दशरथ होता है । अपनी दसों इन्द्रियाँ को विषयों की पूर्ति में लगा देता है । उसे दशमुख कहते हैं । वही रावण होता है । इसी को मोह कहते है । इसी रावण को अज्ञान कहते हैं । जिनके मारने को ज्ञानस्वरूप दशरथ से (जिसने अपनी दसों इन्द्रियाँ जीत ली है )
"दोहा :- दसों इन्द्रियाँ बस करें , दसों दिशा रथ जाय ।
दस सिर रिपु उपजै, सुवन कहिये दशरथ ताय ॥ "
ज्ञानस्वरूप दशरथजी को श्री सुमन्तजी कहते हैं :-
" सचिव धीर धरि कह मृदु बानी ,महाराज तुम पंडित ज्ञानी ॥ "
तो ज्ञानी दशरथजी से ज्ञानस्वरूप श्रीराम प्रगट होते हैं । बिराग प्रगट होता है । ज्ञान की पत्नि भक्ति ,ज्ञान का भाई बिराग है। सो लक्ष्मणजी वैराग्य है । भक्ति सीताजी है ।
" दोहा :- सानुज सीय समेत प्रभु , राजत पर्ण कुटीर ।
भगति ज्ञान वैराग जनु , सोहत धरे शरीर ॥ "
राजा दशरथजी धर्म के प्रतीक हैं । लखन विराग के और सीताजी भक्ति की प्रतीक हैं ।
" धर्म ते विरति योग ते ज्ञाना , ग्यान मोक्षप्रद वेद बखाना । "
धर्मरूप दशरथ को धन से विरति हुई ,तब यज्ञ किया । धर्म और विरति के योग से ज्ञानस्वरूप श्रीराम प्रगट होते हैं । जो अधर्मरूप रावण, अज्ञानरूप रावण है उसका परिवार, मोह रावण है , उसका भाई कुंभकर्ण अहंकार है । और पुत्र मेघनाथ काम का प्रतीक है ।
" मोह दसमौलि तदभ्रात: अहंकार पाकारिजित काम विश्राम ॥"
श्री कागभुशुण्डजी कहते हैं :-
" तात तीन अति प्रबल खल , काम क्रोध अरु लोभ ।
मुनि विज्ञान धाम उर , करहि निमिष मह क्षोभ ॥"
काम,क्रोध और लोभ इन तीनों को ज्ञानी ही जीत सकता है । ज्ञानी के पास जो संतोष रुपी कृपाण है ।
ईश भजन सारथी सुजाना , विरति चर्म संतोष कृपाणा ॥
अज्ञानरूप रावण को जीतने को भगवान का भजन ही सारथी है । विराग रुपी ढाल हो जिस पर शत्रु का किया हुआ प्रचंड प्रहार झेला जा सके । और तीनों काम,क्रोध और लोभ रुपी शत्रुओं का संहार संतोष रुपी कृपाण से होता है । श्री कागभुशुण्डजी कहते हैं :-
" बिन संतोष ना काम नसाहीं , काम अछत सुख सपनेहु नाहीं ॥"
बिना संतोष के काम का नाश नहीं होता । काम के रहते सपने में भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता । क्रोधरुपी शत्रु को भी संतोष रुपी तलवार से नष्ट कर सकता है । लक्ष्मणजी परशुरामजी से कहते हैं -
" नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू , जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू "
संतोष से ही क्रोध पर विजय होती है । लोभ रुपी शत्रु को भी संतोष रुपी तलवार से जीता जा सकता है ।
" उदित अगस्ति पंथ जल सोषा , जिमि लोभहि सोषई संतोषा ।"
अपने अकेले एक संतोष रुपी कृपाण से रावण, कुंभकर्ण,मेघनाथ आदि सभी शत्रु जीते जाते हैं । श्री दशरथ जी धर्म है,ज्ञानी है । उनके परिवार भक्ति,ज्ञान,वैराग्यरुपी श्रीराम,श्रीसीता और श्रीलखनलाल जी अज्ञान की लंका को जीतने को धर्मरथ के बाईस अंग श्रीराम के पास थे,ऐसे श्रीरामजी के पिताजी आज देवताओं की आशा कर रहे हैं ।
मेरे सुकृत को बचाईये -
" जनक सुकृत मूरति वैदेही , दशरथ सुकृत राम धरि देही ।"
मेरे सुकृतरुपी राम बन को न जायें । आज कोई देवता भी दशरथ जी के पक्ष में नहीं है -
" विपति बराबर सुख नहीं , जो थोड़े दिन होय ।
इष्ट मित्र अरु बाँधव , जानि परे सब कोय ॥ "
शेष अगले अंक में----

मंगलवार, 1 जुलाई 2008

श्री मानस रस मंजरी (५)

गताँक से आगे...
श्री द्शरथ जी सूर्यदेव से याचना करते है कि श्रीराम को आपकी प्रखर किरणें व शीत किरणें दुखदायी न हो । अपने श्रीराम का प्रकाश शत्रुओं के सामने सूर्य जैसे चमकना चाहिये । अगर आपका उदय अयोध्या में हो गया तो मेरा प्राणांत हो जायेगा । इस प्रकार विलाप करते हैं । रोते और माथा कूटते हैं -
" माथे हाथ मूँद दोऊ लोचन , तनु धरि सोच लागि जनु सोचन ॥ "
आपके उदय होते ही हमारी प्रजा का, अयोध्यापुरी का सूर्य वन को चला जायेगा । यहाँ पर श्रीराम के दर्शन नहीं होगें । हमारे नैन ज्योतिहीन हो जायेगें -
" गारी सकल कैकई देही ,नैन विहीन कीन्ह जग जेहि ॥ "
नेत्र तभी तक सार्थक है -
" सवैया :- नैन वही जो लखे हरि को । अरु बैन वही हरि नाम उचारे ॥
कान वही जो सुने प्रभु के गुन । दान वही जो भव पार उतारे ॥
नाम वही जो छाय रहे । सर नाम वही प्रभु तनु गारे ॥
ध्यान वही जो लगे निसिवासर । ग्यान वही जो विवेक विचारे ॥"

" नैनवंत रघुवरहि विलोकि । पाये जनम फल होहि विसोकि ॥"
श्री द्शरथ जी कहते हैं -
"धिग जीवन रघुवीर विहीना "
जब हमारे राम वन को चले जायेगें तो हमारा जीवन व्यर्थ हो जायेगा । इसलिये हे सूर्यदेव आपका बारह राशियों पर अधिकार है । बारह राशियों के सूर्य होते हैं । जिनका हर राशि का प्रभाव अलग-अलग होता है । जिस समय वृश्चिक राशि के सूर्य होते हैं, उस समय सूर्य बलवान हो जाते हैं । वृश्चिक राशि के सूर्य का सर्पदंस मुश्किल से ही ठीक होता है । बारह "र" से इसलिये भी प्रणाम करते हैं ,एक वर्ष में बारह महिने होते हैं । बारह राशियों के सूर्य बारह महिने रक्षा करें । बारह बजे दिन को श्रीरामजी प्रगट हुये थे ,इसलिये बारह बार "र " से याद दिलाते हैं कि,
"बारह कला राम अवतारा , सौलह कला कृष्ण सुखसारा ॥
बारह कला से अवतरित श्रीराम के दर्शन करने को हे सूर्यदेव आपने अयोध्या में एक महिने के लिये अखण्ड डेरा डाल दिया था -
"मध्य दिवस अति शीत न घामा , पावन काल लोक विश्रामा ॥
दोहा ;- मास दिवस का दिवस भा ,मर्म न जाने कोय ।
रथ समेत रवि थाकेऊ, निशा कवन विधि होय ॥ "
अयोध्या में श्रीराम जन्म महोत्सव देखकर आप अपना रथ चलाना भूल गये थे -
" कौतुक देख पतंग भुलाना ,मास दिवस तेहि जात न जाना ॥
यह रहस्य काहू न जाना , दिनमनि चले करत गुनगाना ॥ "
हे भास्कर , हे स्वामी ,जब आप आनंद के समय अयोध्या के साथी रहे तो ,आज संकट में भी साथ दीजिये !आप उदय मत होईये । आप अयोध्या के सुख में सुख ,दुख में दुख मानते हैं । तो अयोध्या को दुखी देखकर आपके ह्रदय में सूल जैसा दर्द होगा -
"अवध विलोकि सूल होयहि उर "
श्री द्शरथ जी ने विचार किया होगा अब श्रीराम का वनवास रोकना हमारे बस का नहीं रहा , देवताओं से प्रार्थना करुँ, तब काम बन जायेगा । क्योंकि हमने भी देवासुर संग्राम में देवताओं की तरफ से इन्द्रलोक जाकर दैत्यों से युध्द किया था । देवता भी हमारे सभी उत्सव में आते हैं । जैसे पुत्रेष्टि यज्ञ हमने किया तो देवता आये-
"भगति सहित मुनि आहुति दीन्हे ,प्रगटे अग्नि चरु कर लीन्हे ॥"
अग्निदेव प्रगट होकर मुनि वशिष्ठजी से कहते हैं -
"जो वशिष्ठ कछु ह्रदय विचारा ,सकल काजू भा सिध्द तुम्हारा ॥
यह हवि बाँटि देहु नृप जाई , यथा जोग जेहि भाग बनाई ॥"
इस प्रकार अग्निदेव समझा कर -
" तब अहृश्य पावक भये ,सकल सभहि समुझाइ ।
परमानंद मगन नृप , हर्ष न ह्रदय समाइ ॥"
श्रीद्शरथ जी सोचते हैं कि ,इस यज्ञ में देवता आये , अग्निदेव ने आकर श्री गुरुदेव को प्रसाद बाँटने का तरीका समझा कर गये । श्रीराम- सीता विवाह के समय भी सब देवता सूर्यनारायण सहित आये -
"सिव ब्रम्हादिक विबुध वरूथा , चढ़े विमानहि नाना यूथा ॥
प्रेम पुलक तन ह्रदय उछाहू ,चले विलोकन राम ब्याहू ॥ "
सब देवता जनकपुरी में इस समय जितने विवाह हुये उनको देखने आये और जनकपुरी की सजावट देखकर उनको अपने सुरलोक की शोभा लघु लगने लगी ।
"देखि जनकपुर सुर अनुरागे ,निज निज लोक सबहि लघु लागे ।"
जिस समय वहाँ के मंडप वितान देखें तो श्री मानसकार लिखते हैं -
"चितवहि चकित विचित्र विताना , रचना सकल अलौकिक नाना ॥ "
जिस समय नर-नारियों को देखने लगे तो देवता और देव-वधुओं को जो अपनी सुन्दरता का अभिमान था , चूर चूर हो गया -
" नगर नारि नर रूप निधाना ,सुघर सुधर्म सुशील सुजाना ।
तिनहि देख सब सुर नर नारि ,भये नखत जनु विधु उजयारि ॥ "
जनकपुर के नर-नारियों के सामने देवताओं की सुन्दरता फीकी पड़ गयी । जैसे चन्द्रमा के समक्ष तारागण तेजहीन लगते हैं । ब्रह्माजी ने सोचा जो यहाँ इतनी सुन्दर रचना की है इन्हौंने, तोरन पताका बनाये है , फल और फूलों से सजावट की है । वह तो वृक्षों से ही लिये हैं जो मैंने पृथ्वी पर बनाये हैं । मोर पपीहा कोयल तोता इत्यादि नाना प्रकार के पक्षी जो यहाँ सजावट के लिये रखे गये हैं । वे सब मेरी ही रचना है । ऐसा ब्रह्माजी को अभिमान हुआ । परन्तु जब छूकर देखा तो वहाँ पर श्रीब्रह्माजी की सृष्टि का कोई पेड़ , पौधा , पत्ता ,फल-फूल था ही नहीं ! वे सब मणि, माणिक, स्वर्ण, आदि पदार्थों से निर्मित थे । चतुर कारीगरों ने केला के वृक्ष बनाये वह सोने के हैं ।
" विधिहि वंदि जिन्ह कीन्ह अरंभा , विरचे कनक कदलि के खंभा ॥"
हरे मणियों के पत्ते और फूल बनाये गये थे ।
" हरित मणिन के पत्र फल , पदुमराग के फूल ।
रचना देखि विचित्र अति , मन विरंच कर भूल ॥"
वृक्षों पर जो बेला लताऐं दिख रही है , वह स्वर्ण मणियों से बनाई गयी है ।
" बेनु हरित मणिमय सब कीन्हे , सरल सपरन परहि नहिं चीन्हे ।
कनक कलित अहि बेलि बनाई, लखि नहि परई सपन सुहाई ॥
माणिक मरकत कुलिस पिरोजा , चीरि कोरि पचि रचे सरोजा ।"
माणिक आदि के कमलपुष्प आदि बनाये गये थे ।
"किये भृंग बहुरंग बिहंगा , गुँजहि कुँजहि पवन प्रसंगा ॥"
जब श्रीब्रह्माजी मोर,पपीहा,वृक्षों और लताओं को हाथ लगाया तो चौंक पड़े । अरे यह तो मेरी रचना नहीं है । जब नर -नारियों को देखा यह मेरी रचना होगी -
" सब नर नारि सुभग श्रुति संता , धर्मशील ज्ञानी गुणवंता ॥"
ब्रह्माजी ने अपनी सवारी रोककर कहने लगे - " क्या कोई दूसरा ब्रह्मा हो गया है जिसने यह रचना की है ?" देवता भी खड़े हो गये । जब उन्होंने देखा -
" सुर प्रतिमा खंभन गहि काढ़ि , मंगल द्रव्य लिये कर ठाड़ी ॥"
जब देवताओं ने अपने ही समान देवता खंभों में देखा । मंगल वस्तुएँ हाथों में लिये हैं । गणेशजी गणेश को , ब्रह्माजी ब्रह्मा को , कुबेरजी कुबेर को सब देवता अपने समान दूसरों को देख चकित हो खड़े रह गये । तब -
" विधिहि भयऊ आचरज विसेखी , निज करनी कछु कतऊ नहि देखी ॥"
उस समय देवाधिदेव महादेवजी ने सबको समझाया । आज का मानव समझाता नहीं ,बिगाड़ता है । भगवान सदाशिव ने कहा - गोस्वामीजी लिखते हैं -
"शिव समुझाये देव सब , जनि आचरज भुलाहू ।
हृदय विचारहु धीर धरि , सिय रघुवीर ब्याहू ॥
एहि विधि संभु सबहि समुझावा , पुनि आगे बर बसहि चलावा ॥ "
भोलेनाथ के समझाने पर सब देव प्रसन्न होकर आगे बढ़े ।
दशरथजी सोचते हैं कि देवता हमारे यज्ञ में आये , रामजी के विवाह में आये । सुख में साथ दिया तो दुख की घड़ी में भी सहायता करेगें । रामजी को वनवास नहीं जाने देगें, ऐसा कुछ उपाय करेगें ।
" राय राम राखन हित लागी , बहुत उपाय किये छल त्यागी ।"
विधि मनाव राऊ मन माही , जेहि रघुनाथ न कानन जाही ॥"
श्रीदशरथजी ब्रह्माजी को मनाते हैं कि , आपकी कृपा से मेरे राम को जंगल न जाना पड़े -
" सुमर महेशहि कहहि निहोरी , विनती सुनहु सदाशिव मोरी ।
आशुतोष तुम अवढर दानी । आरति हरहु दीन जनु जानी ॥ "
दोहा :- तुम प्रेरक सबके हृदय , सो मति रामहि देहु ।
वचनु मोर तजि रहहिं घर , परिहरि सीलु सनेहु ॥"
श्री दशरथजी शंकरजी से प्रार्थना करते हैं कि श्रीराम मेरी आज्ञा को न माने , मेरी बात न माने ! आज हम देवताओं को मनाते हैं कि हमारे पुत्र हमारी बात मानें । यह हमारे चरित्र की कमी है । तो -
" राय राम राखन हित लागी , बहुत उपाय किये छल त्यागी ।"
परन्तु कोई उपाय ने काम नही दिया । कोई देवताओं ने इनकी सहायता नहीं की । क्योंकि श्रीराम वनवास देव-इच्छा से देव- सम्मति से ही हो रहा था । इस कार्य में ब्रह्मा एवं ब्रह्माणी जी सहित सभी देवता लगे हुये थे कि , रामजी का वनवास शीघ्र हो । किसी प्रकार रूक नाजायें । स्वार्थी देवता दशरथ जी की प्रार्थना क्यों सुनेगें ?
शेष अगले अंक में ...