गताँक से आगे ----
जिस समय मानव पर संकट आता है , उस समय अपने भी पराये हो जाते हैं । जैसे कमल, तालाब या समुद्र में होता है । पर पाला या तुषार से उसकी कोई रक्षा नहीं करता । जबकि समुद्र में उत्पन्न होने से वरुण देव उनके पिता हुये,
कमल से ब्रह्मा हुये अर्थात ब्रह्माजी उनके पुत्र हुये । सागर से ही अमृत, चन्द्रमा, रंभा, लक्ष्मीजी, निकली , ये सब कमल के सहोदर हुये । लक्ष्मीपति भगवान विष्णु इनके जीजाश्री लगे । परन्तु इन सब के रहते तुच्छ तुषार से कमल बच नहीं पाता !
" सवैया :- वारिध तात हते ,विधि से सुत , अमृत सोम सहोदर जोई ।
रंभा रमा जिनकी भगिनी , मघवा मधुसुदन से बहनोई ॥
तुच्छ तुषार ने मार दिये , पै करि ना सहाय हते सब कोई ।
जै दिन है दुख के सुन रे नर ,ता दिन होत सहाई ना कोई ॥"
आज श्रीदशरथ जी की कोई नहीं सुनते । दशरथजी कोई साधारण व्यक्ति नहीं है .
"दोहा :- दसों इन्द्रियाँ बस करें , दसों दिशा रथ जाय ।
राजन ऐसे लाल का , दशरथ नाम कहाय ॥"
जिसने अपनी दसों इन्द्रियाँ जीत ली है , दसों इन्द्रियाँ का जिसने रथ बना लिया है । जिसने अपनी दसों इन्द्रियाँ को विषयों से रोककर प्रभु को समपर्ण कर दिया , उसका नाम दशरथ होता है । अपनी दसों इन्द्रियाँ को विषयों की पूर्ति में लगा देता है । उसे दशमुख कहते हैं । वही रावण होता है । इसी को मोह कहते है । इसी रावण को अज्ञान कहते हैं । जिनके मारने को ज्ञानस्वरूप दशरथ से (जिसने अपनी दसों इन्द्रियाँ जीत ली है )
"दोहा :- दसों इन्द्रियाँ बस करें , दसों दिशा रथ जाय ।
दस सिर रिपु उपजै, सुवन कहिये दशरथ ताय ॥ "
ज्ञानस्वरूप दशरथजी को श्री सुमन्तजी कहते हैं :-
" सचिव धीर धरि कह मृदु बानी ,महाराज तुम पंडित ज्ञानी ॥ "
तो ज्ञानी दशरथजी से ज्ञानस्वरूप श्रीराम प्रगट होते हैं । बिराग प्रगट होता है । ज्ञान की पत्नि भक्ति ,ज्ञान का भाई बिराग है। सो लक्ष्मणजी वैराग्य है । भक्ति सीताजी है ।
" दोहा :- सानुज सीय समेत प्रभु , राजत पर्ण कुटीर ।
भगति ज्ञान वैराग जनु , सोहत धरे शरीर ॥ "
राजा दशरथजी धर्म के प्रतीक हैं । लखन विराग के और सीताजी भक्ति की प्रतीक हैं ।
" धर्म ते विरति योग ते ज्ञाना , ग्यान मोक्षप्रद वेद बखाना । "
धर्मरूप दशरथ को धन से विरति हुई ,तब यज्ञ किया । धर्म और विरति के योग से ज्ञानस्वरूप श्रीराम प्रगट होते हैं । जो अधर्मरूप रावण, अज्ञानरूप रावण है उसका परिवार, मोह रावण है , उसका भाई कुंभकर्ण अहंकार है । और पुत्र मेघनाथ काम का प्रतीक है ।
" मोह दसमौलि तदभ्रात: अहंकार पाकारिजित काम विश्राम ॥"
श्री कागभुशुण्डजी कहते हैं :-
" तात तीन अति प्रबल खल , काम क्रोध अरु लोभ ।
मुनि विज्ञान धाम उर , करहि निमिष मह क्षोभ ॥"
काम,क्रोध और लोभ इन तीनों को ज्ञानी ही जीत सकता है । ज्ञानी के पास जो संतोष रुपी कृपाण है ।
ईश भजन सारथी सुजाना , विरति चर्म संतोष कृपाणा ॥
अज्ञानरूप रावण को जीतने को भगवान का भजन ही सारथी है । विराग रुपी ढाल हो जिस पर शत्रु का किया हुआ प्रचंड प्रहार झेला जा सके । और तीनों काम,क्रोध और लोभ रुपी शत्रुओं का संहार संतोष रुपी कृपाण से होता है । श्री कागभुशुण्डजी कहते हैं :-
" बिन संतोष ना काम नसाहीं , काम अछत सुख सपनेहु नाहीं ॥"
बिना संतोष के काम का नाश नहीं होता । काम के रहते सपने में भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता । क्रोधरुपी शत्रु को भी संतोष रुपी तलवार से नष्ट कर सकता है । लक्ष्मणजी परशुरामजी से कहते हैं -
" नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू , जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू "
संतोष से ही क्रोध पर विजय होती है । लोभ रुपी शत्रु को भी संतोष रुपी तलवार से जीता जा सकता है ।
" उदित अगस्ति पंथ जल सोषा , जिमि लोभहि सोषई संतोषा ।"
अपने अकेले एक संतोष रुपी कृपाण से रावण, कुंभकर्ण,मेघनाथ आदि सभी शत्रु जीते जाते हैं । श्री दशरथ जी धर्म है,ज्ञानी है । उनके परिवार भक्ति,ज्ञान,वैराग्यरुपी श्रीराम,श्रीसीता और श्रीलखनलाल जी अज्ञान की लंका को जीतने को धर्मरथ के बाईस अंग श्रीराम के पास थे,ऐसे श्रीरामजी के पिताजी आज देवताओं की आशा कर रहे हैं ।
मेरे सुकृत को बचाईये -
" जनक सुकृत मूरति वैदेही , दशरथ सुकृत राम धरि देही ।"
मेरे सुकृतरुपी राम बन को न जायें । आज कोई देवता भी दशरथ जी के पक्ष में नहीं है -
" विपति बराबर सुख नहीं , जो थोड़े दिन होय ।
इष्ट मित्र अरु बाँधव , जानि परे सब कोय ॥ "
शेष अगले अंक में----
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