शुक्रवार, 13 जून 2008

शनैश्चर व्रत कथा

जय श्रीराम
शनैश्चर व्रत कथा
यह कथा भविष्य पुराण से ली गई है । एक बार त्रेतायुग में भयंकर अकाल पड़ा । सम्पूर्ण जगत कष्ट से त्राहि-त्राहि कर रहा था । उस घोर अकाल में कौशिक मुनि अपनी पत्नि एवं पुत्रों के साथ, अपना निवास-स्थान छोड़कर जीवन यापन हेतु, दुसरे प्रदेश में निवास करने निकल पड़े । यात्रा के बीच में परिवार का भरण पोषण अत्यधिक कठिन होने के कारण बड़े कष्ट से अपने एक बालक को मार्ग में ही छोड़ दिया ! वह बालक भूख प्यास से व्याकुल हो भटकते हुए एक पीपल के पेड़ के पास पहुँचा । वहाँ समीप ही बावड़ी थी । बालक ने पीपल के फलों को खाकर ठंडा जल पी लिया । उसे बहुत राहत मिली । वह अब वहीं रहकर प्रतिदिन पीपल के फलों का आहार कर भगवान का ध्यान करता । दैवयोग से एक दिन नारद जी का आगमन हुआ । बालक ने प्रणाम किया,आदरभाव से सेवा की । दयालु नारद जी ने उसकी अवस्था,विनय और नम्रता से बहुत ही प्रसन्न होकर उन्होंने बालक को संस्कारित कर वेद की शिक्षा दी तथा साथ ही द्वादशाक्षर वैष्णव मंत्र(ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) का उपदेश दिया ।
अब वह बालक प्रतिदिन भगवानविष्णु का ध्यान और मन्त्र का जाप करने लगा । नारदजी भी उसी के पास रहने लगे । भगवानविष्णु बालक की तपस्या से प्रसन्न होकर गरुड़ पर सवार हो प्रगट हुए । देवर्षि नारद के वचन से बालक ने पहचान लिया ,तब उसने भगवान से परम भक्ति का वरदान माँगा । श्री हरि भगवान ने प्रसन्न होकर बालक को ज्ञानी और योगी का होने का आशीर्वाद दिया । भगवान के वरदान से वह बालक महाज्ञानी महर्षि हो गया ।
एक दिन बालक ने अपने गुरु नारदजी से पूछा-: हे तात ,यह किस कर्म का फल है कि,जिसने मेरे माता-पिता को मुझसे मेरे बचपन में अलग किया, और मुझे अत्यंत दारुण दुखः झेलने पड़े । इसका रहस्य बताने की दया करें प्रभो !
तब देवर्षि नारद ने आकाश की ओर देखते हुए कहा-:बालक, इस शनैश्चर ग्रह के कारण ही तुम्हें यह दुखः झेलने पड़े । और यह सम्पूर्ण जगत भी उसके मंदगति से चलने के कारण घोर कष्ट पा रहा है । देखो,वह अपनी शक्ति पर अभिभानी होकर आकाश में कितना चमक रहा है ।
यह सुन बालक क्रोध से भर उठा । उसने अपनी तपशक्ति से शनैश्चर को आकाश से भुमि पर पटक दिया । जिससे शनैश्चर के पैर टूट गये । नारदजी अभिमानी शनैश्चर को दंड मिलने पर ,प्रसन्न होकर ब्रम्हा, रुद्र,इन्द्र आदि सभी देवताओं को बुलाकर उनकी दुर्गति दिखाई ।
यह देख ब्रम्हाजी ने बालक से कहा-: हे तपोनिष्ठ बालक,तुमने पीपल के फल खाकर कठिन तप किया है । अत:तुम्हारा नाम आज से "पिप्पलाद"होगा । जो कोई भी शनिवार को तुम्हारा भक्ति-भाव से पूजन करेगें,अथवा "पिप्पलाद" इस नाम का स्मरण करेगें,उन्हें सात जन्मों तक शनि की पीड़ा सहन नहीं करनी पड़ेगी । और वे पुत्र पौत्र का सुख भोग करेगें । अब तुम पुन:शनैश्चर को आकाश में स्थापित कर दो, क्योंकि इनका कोई अपराध नहीं है । ग्रहों की पीड़ा से बचने हेतु नैवेद्य निवेदन, हवन,नमस्कार आदि करना चाहिये । ग्रहों का अनादर नही करना चाहिये । पूजित होने पर ये शान्ति प्रदान करते हैं ।
शनि की ग्रहजन्य पीड़ा से निवृत्ति हेतु शनिवार को स्वंय तैलाभ्यंग कर ब्राह्मणों को भी अभ्यंग हेतु तैल-दान करना चाहिये । शनि की लौह-प्रतिमा बनाकर तैलयुक्त लौह-पात्र में रखकर एक वर्ष तक प्रति शनिवार को पूजन करने के बाद कृष्ण पुष्प - दो कृष्ण वस्त्र- कसार-तिल-भात आदि से उनका पूजन कर काली गाय, काला कम्बल, तिल का तेल और दक्षिणा सहित सब पदार्थ ब्राम्हण को प्रदान करना चाहिये । पूजन आदि में शनि के इस मन्त्र का प्रयोग करना चाहिये
शं नो देवीरभिष्ट्य आपो भवन्तु पीतये । शं योरभि स्त्रवन्तु न: ।।
राज्य नष्ट हुए नल को शनिदेव ने स्वप्न में अपने एक मन्त्र का उपदेश दिया था । उसी नाम-स्तुति से नल को पुन:राज्य उपलब्ध हुआ था ।उस स्तुति से शनिदेव की प्रार्थना करनी चाहिये । सर्वकामप्रद वह स्तुति इस प्रकार है -:
क्रोडं नीलांजनप्रख्यं नीलवर्णंसमस्त्रजम
छायामार्तण्डसम्भूतं नमस्यामि शनैश्चरम
नमोअर्कपुत्राय शनैश्चराय
नीहारवर्णान्जनमेचकाय
श्रुत्वा रहस्यं भवकामदश्च
फलप्रदो मे भव सुर्यपुत्र
नमोस्तु प्रेतराजाय कृष्णदेहाय वै नम:
शनैश्चराय क्रूराय शुद्ध्बुद्धिप्रदायिने
य एभिर्नामभि: स्तौति तस्य तुष्टौ भवाम्यहम
मदीयं तु भयं तस्य स्वप्नेअपि न भविष्यति
जो भी व्यक्ति प्रत्येक शनिवार को एक वर्ष तक इस व्रत को करता है उसे कभी शनि की पीड़ा नही सताती । यह कहकर ब्रम्हाजी सभी देवताओ के साथ परमधाम को चले गये और पिप्पलाद मुनि ने ब्रम्हाजी की आज्ञानुसार शनिदेवजी को पुन: आकाश मे प्रतिष्टित कर दिया । महामुनि पिप्पलादजी ने शनिदेव की इस प्रकार प्रार्थना की -:
कोणस्थ: बभ्रु: कृष्णोरौद्रौऽन्तको यम: ।
सौरि: शनैश्चरो मन्द: प्रीयतां मे ग्रहोत्तम ॥
जो व्यक्ति शनैश्चरोपाख्यान को भक्तिपूवर्क सुनता है तथा । शनि की लौह-प्रतिमा बनाकर तैलयुक्त लौह-पात्र में रखकर ब्राम्हण को दक्षिणा सहित दान देता है- उसको कभी शनि से भय नही होता । उस पर सर्वदा शनिदेव प्रसन्न रहते है ।
जय श्री राम