[ गतांक से आगे ]
श्री दशरथ जी रोते हैं ,विलाप करते हैं । प्राणघातक वेदना का अनुभव करते हैं ।
" "हा रघुनंदन प्राणपिरीते, तुम्हबिन जियत बहुत दिन बीते ।
हा जानकी लखन हा रघुवर ,हा पितु हित चातक जलधर ॥"
श्री दशरथ जी प्रिय पुत्र श्रीराम जी की याद करके रोते हैं ।"हा" शब्द विशेष दुखी होने पर ही मुख से निकलता है । सीताहरण के समय सीता जी भी "हा" कहकर विलाप करती है ।
"हा जग एक वीर रघुराया , केहि अपराध बिसारेहु दाया ॥"
सीता जी अपना अपराध पूछती है । अपराध तो था ही -
"सीता परम रुचिर मृग देखा ,अंग अंग सु मनोहर वेषा ॥
सत्यसंध प्रभु वध कर एहि ,आनहू चर्म कहत वैदेही ॥"
पत्नि का धर्म पति को आज्ञा देने का नहीं है । पर सीता जी ने मृगचर्म लाने को अपने पति श्रीराम से कह दिया । यह अपराध था । इस तरह तीन बार "हा" कहकर जानकी जी रोती है ।
"आरतिहरण शरण सुखदायक ,हा रघुकुल सरोज दिननायक ।
हा लक्ष्मण तुम्हार नहीं दोषा ,सो फल पायहू कीन्हेऊ रोषा ॥"
श्री सीता जी स्वंय स्वीकार करती है अपनी गलती को , अपने अपराध को, कि हमने एक तो प्रभु को मृग मारने की आज्ञा दी । दूसरी गलती लक्ष्मण जी पर क्रोध करके माया मृग की आवाज सुन प्रिय देवर लखनलाल को अपने भ्राता श्रीराम के पास वन में भेज दिया ।
तो जो कोई भक्त भगवान को "हा" कहकर रोता है ,उसको भगवान भी "हा" कहकर रोते हैं । सीता जी के लिये रोते हैं -
"हा सुख खानि जानकी सीता ,रुपशील व्रत नेम पुनीता ॥"
भगवान का भक्त से कहना है-
"जो तु आवै एक पग , मैं धावौ पग साठ ।
जो तु सुखे काठ सम , तो मैं लोहे की लाठ ॥"
आईये अपने प्रसंग पर , पिता अपने पुत्र श्रीराम जी के लिये, लक्ष्मण जी के लिये, पुत्रवधु के लिये " हा"कहकर रोते हैं ।
"हा रघुनंदन प्राणपिरीते, तुम्हबिन जियत बहुत दिन बीते ।
हा जानकी लखन हा रघुवर ,हा पितु हित चातक जलधर ॥
दोहा - राम राम कहि,राम कहि , राम राम कहि राम ।
तनु परिहर रघुवर विरह , राऊ गये सुरधाम ॥ "
इन दो चौपाईऔर एक दोहा में 12 (बारह) "ह" आते हैं । जिनका गूढ़ार्थ निकलता है । 10(दस) इन्द्रियाँ होती है । 5(पाँच) कर्मेन्द्रिय-मुख,हाथ,पैर,गुदा, जननेन्द्रिय और पाँच ज्ञानेन्द्रिय-नेत्र,कान,नाक,जीभ और त्वचा । दशरथ जी दसों इन्द्रियों से और मन बुध्दि से रोये, ये बारह हो गये । इसलिये बारह "ह"आये। दशरथ जी रोते हैं-किसी का मत है कि त्रेतायुग की उम्र -
"बारह लाख छियान्वे हजारा,त्रेता रहे सुखी संसारा॥"
बारह लाख की है।दशरथ जी रोते हैं कहते हैं मैंने त्रेतायुग को कलंकित कर दिया।द्वापर और कलयुग के लोग कहेगें कि त्रेता में एक राजा युग को कलंक लगाने वाला दशरथ नाम का हुआ था,जिसने अपने पुत्र को राजतिलक करने,राजा बनाने को कहकर सबेरे देश से,नगर से,गाँव से और पुर से चौदह वर्ष को बाहर निकाल दिया। इसलिये बारह"ह"का उच्चारण आया है।दूसरा भाव पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदासजी ने जब यह प्रसंग लिखने को अपनी लेखनी उठाई और प्रभु का स्मरण किया,तब- "सुमरत राम रुप उर आवा,परमानंद अमित सुख पावा ॥"
तब गोस्वामीजी की हृष्टि कैसी हो गई-
"सुझहि रामचरित मणि मानिक, गुप्त प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ॥"
जब गुप्त प्रगट सब प्रकार के चरित्र दिखने लगे, तब इनको यह भी दिखा कि लक्ष्मणजी जंगल में बारह वर्ष का अखण्ड व्रत करेगें । क्या व्रत करेगें ? बारह वर्ष सोयेगें नहीं ! कितना कठिन व्रत है ? आज किसी को आठ दिन बिल्कुल नींद ना आये तो दिमाग खराब हो जाये । डाक्टर साहब को ढुंढना पड़ेगा । और इतना ही नहीं लखनलालजी ने बारह वर्ष निराम्बु(निर्जल) व्रत किया । इस बात को याद कर तुलसी बाबा के मन में आया होगा राजकुमार होकर इतना कठिन व्रत किया तो बारह बार "ह" लिख दिया ।
"हा रघुनंदन प्राणपिरीते, तुम्हबिन जियत बहुत दिन बीते ।
हा जानकी लखन हा रघुवर ,हा पितु हित चातक जलधर ॥
दोहा - राम राम कहि,राम कहि , राम राम कहि राम ।
तनु परिहर रघुवर विरह , राऊ गये सुरधाम ॥ "
दस इन्द्रिय+अन्तःकर्ण चतुष्ट्यः (मन बुध्दि चित्त अंहकार)ये चौदह हो गये और पाँच प्राण (प्राण,अपान समान,उदान,व्यान ) इन उन्नीसों से "र" बोलकर उन्नीसों को रामजी को समर्पण कर प्राण छोड़ दिये । अपनी वाणी को हमेशा के लिये श्रीराम जी को सौंप दी। इसलिये -
"दोहा - राम राम कहि,राम कहि , राम राम कहि राम ।
तनु परिहर रघुवर विरह , राऊ गये सुरधाम ॥ "
इस दोहे में तेरह "र" आते हैं । चौदह भुवन होते हैं । सब में राम ध्वनि होना चाहिये, इसलिये भी तेरह भुवन में "रकार" भेजकर चौदहवें में आप स्वंय जाते हैं ।
"राऊ गये सुरधाम"
नारद मुनि जी भी यही वरदान माँगते हैं कि ,
"राम सकल नामन ते अधिका ,होऊ नाथ अघ खग गन वधिका ॥"
दोहा :- राका रजनी भगति तव ,राम नाम सोई सोम ।
अपर नाम उडगन विमल , बसहि भक्त उर व्योम ॥"
अर्थ :- क्वाँर के शरद पूर्णिमा की रात्रि को जो चन्द्रमा निकलता है , कहते हैं कि उस चन्द्र से अमृत बरसता है । सो वह रात आपकी भक्ति हो ,रामनाम उस रात्रि के चन्द्र का अमृत हो और आपके जो अनगिनत नाम हैं उस रात्रि के तारागणों के समान भक्तों के आकाशरुपी ह्रदय में हमेशा निवास करे । नारदजी की मनोकामना है कि राका रजनी ही सब भक्तों के ह्र्दय में चौदह भुवनों में हमेशा निवास करे । दशरथ जी भी तेरह भुवनों में "रकार" भेजकर -"राऊ गये सुरधाम"
" दोहा - राम राम कहि,राम कहि , राम राम कहि राम ।
तनु परिहर रघुवर विरह , राऊ गये सुरधाम ॥ "
यह दोहा "रा" अक्षर से शुरु होकर "म" अक्षर पर समाप्त किया है । "रा" और "म" के बीच में अपनी जीवन-लीला समाप्त करते हैं ।
"दोहा :- तुलसी रा के कहत ही , निकसत पाप पहार ।
फिर आवन पावत नहिं , देत मकार किवार ॥ "
इसलिये 'रा" और "म" के मध्य "राऊ गये सुरधाम"
[ शेष अगले अंक में ]
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रामरामराम
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